Surdas ke Pad – NCERT Class 10 Hindi A Kshitij सूरदास के पद

NCERT Solutions for Class 10 Hindi Kshitij Chapter 1 Surdas ke Pad - सूरदास के पद - Explanation, Textbook Question - Answers and Extra / Important Question Answers

हमारे ब्लॉग में आपको NCERT पाठ्यक्रम के अंतर्गत कक्षा 10 (Course A) की हिंदी पुस्तक ‘क्षितिज’ के पाठ पर आधारित प्रश्नों के सटीक उत्तर स्पष्ट एवं सरल भाषा में प्राप्त होंगे। साथ ही काव्य – खंड के अंतर्गत निहित कविताओं एवं साखियों आदि की विस्तृत व्याख्या भी दी गई है।

यहाँ NCERT HINDI Class 10 के पाठ – 1 ‘सूरदास के पद’ (Surdas ke Pad) की व्याख्या दी जा रही है। इन पदों की व्याख्या पाठ की विषय-वस्तु को समझने में आपकी सहायता करेगी। इसे समझने के उपरांत आप पाठ से संबंधित किसी भी प्रश्न का उत्तर सरलता से दे सकेंगे।

आपकी सहायता के लिए पाठ्यपुस्तक में दिए गए प्रश्नों के उत्तर (Textbook Question-Answers) एवं अतिरिक्त प्रश्नों के उत्तर (Extra Questions /Important Questions with Answers) भी दिए गए हैं। आशा है यह सामग्री आपके लिए उपयोगी सिद्ध होगी।

Table of Contents

surdas ke pad

Surdas ke Pad Introduction
'सूरदास के पद' की भूमिका

सूरदास जी हिंदी साहित्य के भक्तिकाल में सगुण भक्ति के अंतर्गत श्रीकृष्ण को अपना आराध्य मानकर कविता करने वाले सबसे प्रमुख कवि हैं।

कक्षा 10 की हिंदी पाठ्यपुस्तक क्षितिज भाग-2 के काव्य खंड में सूरदास जी द्वारा रचित सूरसागर के भ्रमरगीत से चार पद लिए गए हैं। इन पदों में गोपियों की विरह वेदना का वर्णन किया गया है। जब श्री कृष्ण लोक कल्याण के कार्य को पूरा करने के लिए गोकुल से मथुरा जाते हैं और लौटकर नहीं आ पाते तब गोकुलवासी उनके वियोग में दुखी रहने लगते हैं। श्री कृष्ण को भी गोकुलवासियों और गोपियों के दुख का अनुमान था इसलिए श्री कृष्णा अपने मित्र उद्धव को गोकुल भेज कर अपना संदेश गोपियों तक पहुँचाते हैं।

उद्धव निर्गुण ब्रह्म की भक्ति करते थे। उन्होंने ज्ञान और योग का उपदेश देकर गोपियों की विरह वेदना (दुख) को शांत करने का प्रयास किया। उद्धव गोपियों को समझते हैं कि प्रेम और भक्ति से मोक्ष की प्राप्ति नहीं होगी इसलिए ब्रह्म की उपासना करो जिससे सांसारिक बंधनों से मुक्ति मिल सके। उद्धव की शुष्क, नीरस और ज्ञान की बातें सुनकर गोपियों का दुख बढ़ जाता है। गोपियाँ प्रेम के संदेश के स्थान पर ज्ञान के उपदेश को सुनकर क्रोधित हो जाती हैं। तभी वहाँ एक भौंरा (भ्रमर) आ जाता है। गोपियाँ उस भौंरे के बहाने उद्धव पर व्यंग बाण छोड़ती हैं।

उद्धव उनके अतिथि थे और श्री कृष्ण के मित्र भी थे इसलिए वे उनका अपमान नहीं करना चाहती थी परंतु वे अपने हृदय के दुख को रोक नहीं पाती और भौंरे की उपमा देकर वे उन पर कटाक्ष करती हैं अर्थात् उन्हें ताने देती हैं। 

भौंरे के लिए यह प्रसिद्ध है कि वह फूलों पर मँडराता है लेकिन उनसे सच्चा प्रेम नहीं करता। गोपियों को भी अब कृष्ण का व्यवहार ऐसा ही प्रतीत हो रहा है। दोनों का रंग भी एक – सा ही काला है। अतः भौंरे को प्रतीक मानकर गोपियों ने श्री कृष्ण के लिए अपने मन के भाव प्रकट किए हैं। साथ ही ज्ञान का उपदेश देने आए उद्धव पर व्यंग्य भरी बातों से अपना असंतोष (निराशा) प्रकट किया है।

Surdas ke Pad Explanation
'सूरदास के पद' की व्याख्या

(1)

 

ऊधौ, तुम हौ अति बड़भागी।

अपरस रहत सनेह तगा तैं, नाहिन मन अनुरागी।

पुरइनि पात रहत जल भीतर, ता रस देह न दागी।

ज्यौं जल माहँ तेल की गागरि, बूँद न ताकौं लागी।

प्रीति – नदी मैं पाउँ न बोरयौ, दृष्टि न रूप परागी।

‘सूरदास’ अबला हम भोरी, गुर चाँटी ज्यौं पागी।।

शब्दार्थ –

  • हौ – हो

  • अति – बहुत

  • बड़भागी – भाग्यवान, भाग्यशाली

  • अपरस – अलिप्त, नीरस, अछूता

  • स्नेह – स्नेह, प्रेम 

  • तगा – धागा, बंधन

  • तैं – इसलिए

  • नाहिन – नहीं

  • अनुरागी – प्रेम से भरा हुआ 

  • पुरइनि पात – कमल का पत्ता

  • रहत – रहता है

  • भीतर – अंदर

  • ता – उसका

  • देह – शरीर

  • दागी – दाग़ , धब्बा

  • ज्यौं – जैसे 

  • माहँ – में

  • गागरी – छोटा घड़ा या मटकी

  • ताकौ- उस पर

  • लागी – लगना

  • प्रीति – नदी – प्रेम की नदी

  • पाउँ- पैर

  • बोरयौ-  डुबोया

  • दृष्टि – नज़र

  • परागी- मुग्ध होना, मोहित होना

  • अबला- कमज़ोर (नारी) 

  • भोरी- भोली

  • गुर चाँटी ज्यौं पागी – जिस प्रकार चींटी गुड़ में लिपटती है, उसी प्रकार हम भी कृष्ण के प्रेम में डूबी हुईं हैं। 

व्याख्या –

प्रस्तुत पद में सूरदास जी कहते हैं कि उद्धव गोपियों को श्री कृष्ण के विरह के दुख से मुक्त होने के लिए ज्ञान का उपदेश देते हैं। उत्तर में गोपियाँ उद्धव पर व्यंग्य करते हुए कहती हैं कि हे उद्धव! आप तो बड़े ही भाग्यशाली हैं जो आप प्रेम के बंधन में नहीं बँधे और न ही आपके मन में किसी के लिए अनुराग (प्रेम) उत्पन्न हुआ है। आप कमल के पत्ते के समान हैं जिस पर पानी की एक बूँद भी नहीं ठहरती और न ही वह पानी में डूबता है। चिकना होने के कारण वह जल में रहकर भी जल के प्रभाव से मुक्त रहता है।

गोपियाँ उद्धव की तुलना तेल लगी मटकी से करते हुए कहती हैं कि जिस प्रकार तेल लगी मटकी को यदि पानी में डुबोया जाए तब भी उस पर पानी की बूँद नहीं आ पाती उसी प्रकार आप भी प्रभावहीन हैं। कृष्ण के निकट रहते हुए भी आपका मन, उनके प्रेम में नहीं डूबा। गोपियाँ कहती हैं कि आपने कृष्ण के प्रेम रूपी नदी में कभी अपना पैर नहीं डुबोया और न ही आपकी दृष्टि कृष्ण के मनमोहक रूप पर पड़ी है जिसे देखकर आप उनके आकर्षक रूप पर मुग्ध हो पाते।

वे कहती हैं कि हम तो अबला और भोली है और कृष्ण के प्रेम में इस प्रकार डूबी हुई हैं जिस प्रकार गुड़ में चींटियाँ चिपक जाती हैं और अंतिम साँस तक वहीं चिपकी रहती हैं। उसी प्रकार हम चाह कर भी अपने – आप को श्री कृष्ण से अलग नहीं कर सकतीं। 

भावार्थ –

उपरोक्त पद में गोपियों ने व्यंग्य करते हुए उद्धव को बड़भागी कहा है। गोपियाँ यह कहना चाह रहे हैं कि आप कभी प्रेम के संबंध में बँधे ही नहीं इसलिए आपने कभी प्रेम के सुख को अनुभव ही नहीं किया। अब हम श्री कृष्ण से दूर होने के कारण उनके विरह के दुख को झेल रही हैं। हमारे इस पीड़ा को भी न ही आप समझ सकते हैं, न ही अनुभव कर सकते हैं क्योंकि आपने कभी प्रेम के महत्त्व को जाना ही नहीं है। उद्धव श्रीकृष्ण के प्रेम में न पड़ने में सफल हुए हैं इसलिए वे भाग्यशाली हैं। ऐसा कहकर गोपियाँ उद्धव की स्तुति के बहाने उनकी निंदा करती हैं।

गोपियों ने उद्धव को संवेदनहीन सिद्ध करने के लिए कमल के पत्ते और तेल लगी मटकी के समान बताया है। पानी के बीच में रहकर भी दोनों पर पानी का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। इस प्रकार उद्धव भी अपने ज्ञान और योग साधना के अहंकार के कारण कृष्ण रूपी प्रेम की नदी के निकट रहते हुए भी उनकी प्रेम से अछूते हैं अर्थात् उन पर श्री कृष्ण के दिव्य, सुंदर और आकर्षक व्यक्तित्त्व का तथा उनके प्रेम का कोई प्रभाव नहीं पड़ा।

गोपियाँ स्वयं को अबला कहती हैं क्योंकि वे योग साधना जैसे कठिन रास्ते पर नहीं चल पाएँगी और भोली कहकर वे यह जताना चाहती हैं कि उनके मन में छल कपट नहीं है। उन्होंने श्री कृष्ण को निस्वार्थ प्रेम किया है और वह गुड़ में लिपटी चींटी के समान अपनी अंतिम साँस तक श्री कृष्ण को प्रेम करती रहेंगी। गोपियाँ किसी भी स्थिति में कृष्ण को भुलाना नहीं चाहती और न ही कोई और उपाय अपना कर स्वयं को कृष्ण से दूर करना चाहती हैं।

काव्य सौंदर्य –

1. ‘पुरइनि पात’ में अनुप्रास अलंकार है। 

2. ‘प्रीति – नदी’, ‘सनेह तगा’ में रूपक अलंकार है। 

3. गोपियों की तुलना चींटी से करने में – ‘गुर चाँटी ज्यौं पागी’ उत्प्रेक्षा अलंकार है। 

4. ‘ज्यौं जल माँह तेल की गगरी’ में भी उत्प्रेक्षा अलंकार है।

5. पद में ब्रजभाषा का प्रयोग किया गया है। 

6. पद में संबोधनात्मक शैली का प्रयोग किया है। 

     

(2)

मन की मन ही माँझ रही।

कहिए जाइ कौन पै ऊधौ, नाहीं परत कही।

अवधि अधार आस आवन की, तन मन बिथा सही।

अब इन जोग सँदेसनि सुनि-सुनि, बिरहिनि बिरह दही।

चाहति हुतीं गुहारि जितहिं तैं, उत तैं धार बही।

‘सूरदास’ अब धीर धरहिं क्यौं, मरजादा न लही।।

शब्दार्थ – 

 

  • माँझ – भीतर

  • कहिए – कहें

  • जाइ – जाकर

  • ऊधौ – उद्धव

  • नाही – नहीं

  • परत कही – कहा जाता 

  • अवधि – निश्चित समय

  • अधार – आधार, सहारा

  • आस – आशा

  • आवन -आगमन, आना

  • बिथा – व्यथा, दुख

  • जोग – योग

  • सँदेसनि – संदेश 

  • सुनि-सुनि – सुन – सुनकर

  • विरहिनी – वियोग में (प्रेमी से बिछुड़ कर) जीने वाली स्त्री

  • बिरह दहि – वियोग की आग में जल रही है

  • चाहति – चाहती

  • हुतीं – थीं

  • गुहारि – पुकार 

  • जितहिं तैं – जहाँ से

  • उत तैं –  उधर से, वहाँ से 

  • धार – योग की धारा

  • बही -बहना

  • धीर – धैर्य, धीरज

  • धरहि – धारण करना

  • मरजादा- मर्यादा

  • ना लही- नहीं रखी

व्याख्या –

प्रस्तुत पद में सूरदास जी कहते हैं कि श्री कृष्ण के मथुरा चले जाने के कारण गोपियाँ उनके विरह में दुखी थी। उनके वापिस लौटने पर अपने इस दुख को वे श्री कृष्ण को सुनाना चाहती थी कि उनके बिना उनका जीवन दुखों से भरा था। वे अपने मन की यह बात उन्हें बताना चाहती थी परंतु उद्धव द्वारा गोपियों को पता चलता है कि श्री कृष्ण गोकुल नहीं आ सकेंगे इसीलिए वे बहुत बेचैन हो जाती हैं।

वे उद्धव से कहती हैं कि हे उद्धव! हमारे मन की बात हमारे मन में ही रह गई। हम अपना दुख किसके सामने जाकर प्रकट करें अर्थात् हम अपना दुख श्री कृष्ण के अलावा और किसी से नहीं कह सकती। श्री कृष्ण के आने की प्रतीक्षा में हम तन-मन को दुख देने वाले उनके वियोग को सह रही थी। उनसे मिलने पर हमें सुख प्राप्त होगा, इस आशा में हमने उनके वियोग (बिछुड़ने) की अवधि को, उस समय के दुख को सहन किया और अब तुम आकर यह सूचना दे रहे हो कि श्री कृष्णा नहीं आएँगे। साथ ही साथ तुम हमें ज्ञान- योग का संदेश भी दे रहे हो।

तुम्हारे इस ज्ञान – योग के संदेश ने हमारे इस विरह – दुख की अग्नि में घी का काम किया है अर्थात् हमारे दुख को और बढ़ा दिया है। विरह – वेदना से बचने के लिए हम श्री कृष्ण को पुकारना चाहती हैं परंतु उनकी ओर से तो ज्ञान की धारा बह रही है। गोपियाँ कहती है कि वे तो विरह के दुख से मुक्ति पाने के लिए कृष्ण से रक्षा की उम्मीद कर रही थी और उन्हें पुकारना चाहती हैं परंतु उन्होंने तो तुम्हें ज्ञान और योग का संदेश देकर हमारे पास भेज दिया है। उनके ऐसा करने से हमारा दुख (व्यथा) और अधिक बढ़ गया है।

गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि जब श्री कृष्ण ने ही प्रेम की मर्यादा का पालन नहीं किया तो फिर हम क्यों धीरज धरें! प्रेम की मर्यादा तो यही है कि प्रेम के बदले प्रेम दिया जाए किंतु श्री कृष्ण ने ज्ञान – योग का संदेश भेज कर हमारे प्रेम का अपमान किया है। हमारे साथ छल किया है।

भावार्थ –

श्री कृष्ण के विरह में दुखी गोपियाँ उनके प्रेम से ही अपना दुख मिटाना चाहती थी। श्री कृष्ण के गोकुल वापिस आने की आशा में वे किसी तरह श्री कृष्ण के विरह के दुख को सह रही थी परंतु उनकी ओर से उद्धव द्वारा ज्ञान – योग का संदेश सुनकर गोपियों की विरह रूपी अग्नि में मानो घी पड़ गया अर्थात् उनकी विरह – वेदना (दुख) बढ़ गई। गोपियों ने कृष्ण द्वारा प्राप्त संदेश को अपने प्रेम का अपमान समझा।

काव्य – सौंदर्य –

 

1. ‘अवधि अधार आस आवन की’ में अनुप्रास अलंकार है। 

2. ‘बिरहिनि बिरह’ में अनुप्रास अलंकार है। 

3. ‘सुनि – सुनि ‘ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है। 

4. पद में ब्रज भाषा का प्रयोग किया गया है। 

5. पद में संबोधनात्मक शैली का प्रयोग किया है।

(3)

हमारैं हरि हारिल की लकरी।

मन क्रम बचन नदं -नदंन उर, यह दृढ़ करि पकरी।

जागत सोवत स्वप्न दिवस-निसि , कान्ह-कान्ह जक री।

सुनत जोग लागत है ऐसौ, ज्यौं करुई ककरी।

सु तौ ब्याधि हमकौं लै आए, देखी सुनी न करी।

यह तौ ‘सूर’ तिनहिं लै सौंपौ, जिनके मन चकरी।।

शब्दार्थ –

  • हमारैं – हमारे

  • हरि – श्री कृष्ण

  • हारिल – एक पक्षी

  • लकरी – लकड़ी

  • मन क्रम वचन- मन से,कर्म से, वचन से

  • नदं नदंन- नदं के पुत्र श्री कृष्ण

  • उर – हृदय

  • दृढ़ करि पकरी – मज़बूती से (कसकर) पकड़ रखा है

  • जागत सोवत – जागते – सोते

  • स्वप्न – सपने में

  • दिवस – निसि – दिन में – रात में 

  • कान्हा -कान्हा – कृष्ण – कृष्ण

  • जकरी – रटती रहती हैं

  • सुनत – सुन कर

  • जोग- योग की बातें

  • लागत है- लगता है

  • ऐसौ- ऐसा

  • ज्यौं करुई ककरी – जैसे कड़वी ककड़ी

  • सु – वह

  • व्याधि – रोग, पीड़ा देने वाली 

  • करी – भोगा

  • तिनहिं लै – उनको

  • सौंपौ- सौंप दो

  • चकरी- अस्थिर ,चंचल

व्याख्या –

प्रस्तुत पद में गोपियों ने योग साधना में अपनी अरुचि को प्रकट किया है और श्री कृष्ण के प्रति अपने अनन्य प्रेम (एक ही के प्रेम में लीन रहना) को अभिव्यक्त किया है। गोपियाँ कहती हैं कि हे उद्धव! कृष्ण तो हमारे लिए हारिल की लकड़ी के समान हैं। जिस प्रकार हारिल पक्षी उड़ते समय अपने पैरों में हमेशा एक लकड़ी को पकड़े रहता है और उसे यह विश्वास होता है कि यह लकड़ी उसे गिरने नहीं देंगी। उसी प्रकार हमने मन, कर्म और वचन से नंद के बेटे अर्थात् श्री कृष्ण को अपने हृदय से लगाकर रखा हुआ है।

कहने का भाव यह है कि गोपियों अपने मन में हर समय श्री कृष्ण का ही ध्यान करती रहती हैं और उन्हें यह विश्वास है कि श्री कृष्ण के प्रेम के बिना वे जी नहीं पाएँगी। वे कहती हैं कि हम तो सोते और जागते हुए, सपने में और दिन – रात केवल कान्हा – कान्हा जपती रहती हैं। हम तो श्री कृष्ण से एकनिष्ठ प्रेम करती हैं और तुम्हारी ज्ञान – योग की बातें हमें कड़वी ककड़ी के समान लगती हैं। 

 सूरदास जी लिखते हैं कि गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि तुम तो योग रूपी ऐसा रोग (बीमारी) लाए हो जो हमने न ही पहले कभी देखा, न सुना और न ही कभी भोगा (अनुभव किया) है। अतः योग की शिक्षा तुम  उन लोगों को दो जिनका मन अस्थिर है, चंचल है, चकरी की तरह इधर-उधर भटकता रहता है। हम तो श्री कृष्ण के प्रेम में अपना मन स्थिर कर चुकी हैं। हमने अपने मन को श्री कृष्णा में दृढ़ कर लिया है इसलिए हे उद्धव! तुम्हारे इस ज्ञान के उपदेश का हम पर कोई प्रभाव नहीं होगा। 

भावार्थ –

गोपियाँ श्री कृष्ण से एकनिष्ठ (एक ही में श्रद्धा रखना) प्रेम करती हैं। उनके लिए कृष्ण ही एकमात्र सहारा हैं। योग की बातें उन्हें कड़वी ककड़ी के समान अरुचिकर लगती हैं अर्थात् पसंद नहीं आती। वे किसी भी स्थिति में योग को स्वीकार नहीं करना चाहती क्योंकि वे श्री कृष्ण को और उनके प्रति प्रेम को अपने मन में बसाए रखना चाहती हैं।

काव्य सौंदर्य – 

 

1. ‘हमारैं हरि हरिल’ तथा ‘नंद – नंदन’ में अनुप्रास अलंकार है। 

2. ‘कान्हा – कान्हा’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।

3. ‘सुनत जोग लागत है ऐसौ, ज्यौं करुई ककरी’ में उत्प्रेक्षा अलंकार है।

4. हारिल की लकड़ी मुहावरे का प्रयोग श्री कृष्ण के लिए गोपियों के गहरे प्रेम को बताने के लिए किया गया है।

5. पद में ब्रज भाषा का प्रयोग किया गया है। 

6. पद में संबोधनात्मक शैली का प्रयोग किया है।

 

(4) 

हरि हैं राजनीति पढ़ि आए।

समुझी बात कहत मधुकर के, समाचार सब पाए।

इक अति चतुर हुते पहिलैं ही, अब गुरु ग्रंथ पढ़ाए।

बढ़ी बुद्धि जानी जो उनकी, जोग-सँदेस पठाए।

ऊधौ भले लोग आगे के, पर हित डोलत धाए ।

अब अपनै मन फेर पाइहैं, चलत जु हुते चुराए।

ते क्यौं अनीति करैं आपनु , जे और अनीति छुड़ाए।

राज धरम तौ यहै ‘सूर’, जो प्रजा न जाहिं सताए।।

शब्दार्थ –

  • पढ़ि आए – पढ़ ली है 

  • समुझी बात – समझ कर

  • मधुकर – भौंरा, उद्धव के लिए गोपियों द्वारा प्रयुक्त संबोधन 

  • इक – एक

  • अति – बहुत

  • चतुर – चालाक 

  • हुते – थे

  • पहिलैं – पहले से 

  • गुरु – बड़े 

  • ग्रंथ – शिक्षा प्राप्त करने के लिए पुस्तक 

  • पढ़ाए- पढ़ लिए हैं

  • पठाए -भेजा

  • बढ़ी बुद्धि – अधिक बुद्धि, समझदार 

  • आगे के- पहले के

  • परहित – दूसरे की भलाई के लिए

  • डोलत धाय – घूमते थे, दौड़ कर जाते थे

  • फेर – फिर से

  • पाइहैं – पा लेंगी

  • चलत – चलते समय, जाते समय

  • जु – जो

  • हुते चुराए – चुराकर ले गए थे

  • ते – वे

  • अनीति – अन्याय

  • आपुन – स्वयं

  • जे और – जो दूसरों को

  • अनीति छुड़ाए – अन्याय से छुड़ाते थे

  • राज धरम – राजा का धर्म

  • तौ – तो

  • यहै – यही है

  • न जाहि सताए – न सताया जाए

 व्याख्या –

प्रस्तुत पद में सूरदास जी वर्णन करते हैं कि गोपियाँ उद्धव को उलाहना (शिकायत) करते हुए कहती हैं कि श्री कृष्ण ने अब राजनीति सीख ली है। हे उद्धव! तुम्हारे योग संदेश को सुनकर हम समझ गईं हैं कि राजा बनने के बाद श्री कृष्ण का मन अब बदल गया है। राजनीति जानने वाले अवसर के अनुसार बदल जाते हैं। हमारे प्रति अब श्री कृष्ण का व्यवहार बदल गया है। हमारा हाल जानने के लिए वे स्वयं नहीं आए उन्होंने तुम्हें यहाँ का समाचार जानने के लिए भेज दिया है। वे पहले से ही चतुर थे लेकिन अब तो लगता है उन्होंने राजनीति के बड़े-बड़े ग्रंथ भी पढ़ लिए हैं इसलिए वे और अधिक चतुर हो गए हैं।

विरह – वेदना के बढ़ जाने के कारण गोपियाँ  श्रीकृष्ण पर व्यंग्य करते हुए कहती हैं कि उनकी बुद्धि बहुत बढ़ गई है तभी तो हमारे प्रेम को जानते हुए भी उन्होंने हमारे लिए योग का संदेश भिजवाया है। वे उद्धव से कहती हैं, हे उद्धव! पहले के लोग भले (अच्छे) होते थे जो दूसरों की भलाई के लिए दूर से भी दौड़कर आ जाते थे। वे आगे कहती हैं कि तुम कृष्ण से जाकर कह दो कि वे यहाँ से जाते समय हमारे हृदय को चुरा कर ले गए थे, वे हमें वापस कर दें। अब श्री कृष्णा बदल गए हैं। जो दूसरों को अनीति (अन्याय) से मुक्ति दिलाते थे, वे अब स्वयं हमारे साथ अन्याय क्यों कर रहे हैं? 

गोपियाँ आगे कहती हैं कि राजा का धर्म होता है कि वह अपनी प्रजा को सताए नहीं, हर प्रकार के कष्ट से प्रजा की रक्षा करे परंतु श्री कृष्णा राजा होकर अपनी प्रजा को अर्थात् हमें सता रहे हैं। 

 

भावार्थ –

गोपियों उद्धव से शिकायत करती हैं कि श्री कृष्ण ने अब राजनीति सीख ली है। वे प्रेम की नहीं बल्कि राजनीति की भाषा बोलने लगे हैं अर्थात् केवल अपने हित (लाभ) के बारे में सोच रहे हैं। राजा बनाकर उन्हें राजधर्म का पालन करना चाहिए उन्हें अपनी प्रजा की रक्षा करनी चाहिए परंतु वे तो राजधर्म भूल गए हैं और अपनी प्रजा अर्थात् हमें सता रहे हैं। हम पर अत्याचार कर रहे हैं। ऐसी बातों से गोपियाँ यह बताना चाहती हैं कि वह किसी भी स्थिति में श्री कृष्ण को प्रेम करना नहीं छोड़ेंगे। श्री कृष्ण का उनके प्रेम के बदले प्रेम न देकर उन्हें योग का संदेश देना उन पर अत्याचार करने के समान है। 

 

काव्य सौंदर्य – 

 

1. ‘समाचार सब’, ‘गुरु ग्रंथ’, ‘बड़ी बुद्धि’ , ‘अब अपनै’ में अनुप्रास अलंकार है। 

2. सूरदास जी ने इस पद के माध्यम से राजधर्म के विषय में बताया है।

3. पद में ब्रज भाषा का प्रयोग किया गया है। 

4. पद में संबोधनात्मक शैली का प्रयोग किया है।

Surdas ke Pad Question Answers
सूरदास के पद प्रश्न उत्तर

1. गोपियों द्वारा उद्धव को भाग्यवान कहने में क्या व्यंग्य निहित है?

उत्तर – गोपियाँ व्यंग्य में उद्धव को कमल के पत्ते और तेल लगे घड़े के समान प्रभावहीन कहती हैं। कृष्ण के निकट रहते हुए भी उनका मन श्रीकृष्ण के प्रेम में नहीं डूबा। उनकी दृष्टि कृष्ण के मनमोहक रूप पर पड़ी ही नहीं और इसलिए वे श्रीकृष्ण के आकर्षक रूप पर मुग्ध नहीं हुए।

यदि वे उनके प्रेम में पड़े होते तो उनकी दशा भी गोपियों के समान हो जाती। वे कृष्ण प्रेम के प्रभाव और परिणाम से बचने में सफल हुए हैं। गोपियाँ उद्धव को यह बताना चाहती हैं कि श्रीकृष्ण के समीप रहकर भी उन्होंने प्रेम का मूल्य नहीं जाना इसलिए वे उद्धव को व्यंग्य में भाग्यशाली कहती हैं।

2. उद्धव के व्यवहार की तुलना किस-किस से की गई है?

उत्तर – उद्धव को प्रभावहीन बताने के लिए गोपियों ने उनके व्यवहार की तुलना दो चीज़ों से की गई है। वे उन्हें कमल के पत्ते के समान कहती हैं जो चिकना होने के कारण जल में रहकर भी जल के प्रभाव से मुक्त रहता है अर्थात् कमल के पत्ते पर पानी की एक भी बूँद नहीं ठहरती और न ही वह पानी में डूबता है। उसी प्रकार उद्धव पर भी कृष्ण के प्रेम का प्रभाव नहीं पड़ सका।

गोपियाँ उद्धव को तेल लगी मटकी के समान कहती हैं। जिस प्रकार तेल लगी गगरी (मटकी) को यदि पानी में डुबोया जाए तब भी उस पर पानी की बूँद नहीं आ पाती। इसी प्रकार उद्धव श्रीकृष्ण के निकट रह कर भी उनके प्रेम से अछूते हैं। उनके ऊपर श्री कृष्ण के दिव्य, मोहक और आकर्षक रूप और उनके प्रेम का कोई प्रभाव नहीं पड़ा।

3. गोपियों ने किन-किन उदाहरणों के माध्यम से उद्धव को उलाहने दिए हैं?

उत्तर – गोपियों ने उद्धव के योग – संदेश को सुनकर उन्हें उलाहने दिए हैं। उन्होंने उद्धव से कहा कि तुम्हारा यह योग संदेश हमारे किसी काम का नहीं है। यह तो कड़वी ककड़ी के समान है जो खाई नहीं जाती। इसका अर्थ यह है कि तुम्हारे ज्ञान की बातें हम ग्रहण नहीं कर सकती।

तुम उन्हें योग की सीख दो जिनका मन चकरी के समान चंचल है। हमारा मन तो कृष्ण के प्रेम के प्रति स्थिर है। श्रीकृष्ण हमारे लिए हारिल की लकड़ी के समान हैं। हम उन्हें नहीं छोड़ सकतीं। यदि हम श्रीकृष्ण को छोड़ना भी चाहें तो भी हमारा मन उनके प्रेम में इस प्रकार लिप्त (डूबा हुआ) है जिस प्रकार चींटी अपनी अंतिम साँस तक गुड़ से चिपटी रहती है।

ज्ञान – योग को गोपियों ने एक बीमारी के समान बताया जिसे न कभी देखा, न सुना और न ही उन्होंने कभी अनुभव किया है। गोपियों ने यह भी उलाहना दिया कि उनके इस योग संदेश ने गोपियों के विरह के दुख को और अधिक बढ़ा दिया है।

4. उद्धव द्वारा दिए गए योग के संदेश ने गोपियों की विरहाग्नि में घी का काम कैसे किया?

उत्तर – श्रीकृष्ण के मथुरा जाने के बाद से ही गोपियाँ कृष्ण के वियोग (कृष्ण से दूर रहने) की पीड़ा को सह रही थी। वे पहले से विरह की अग्नि में जल रही थी। उन्हें आशा थी कि कृष्ण शीघ्र ही लौट आएँगे परंतु जब उनके स्थान पर उद्धव आए और उन्होंने योग का संदेश सुनाकर गोपियों के दुख को दूर करने का प्रयास किया तब इसके विपरीत प्रतिक्रिया हुई।

इस योग – संदेश ने उनके विरह की अग्नि में घी का काम किया। जिस प्रकार जलती हुई अग्नि में घी डालने से अग्नि और अधिक भभक उठती है उसी प्रकार विरह की अग्नि में जल रही गोपियाँ और अधिक दुखी हो गई ।उनके सब्र का बाँध टूट गया। उनकी आशा निराशा में बदल गई। उन्हें लगने लगा कि अब श्रीकृष्ण उनके प्रेम को भूल गए हैं।

5. ‘मरजादा न लही’ के माध्यम से कौन-सी मर्यादा न रहने की बात की जा रही है?

उत्तर – गोपियाँ श्रीकृष्ण से अनन्य (सच्चा) प्रेम करती हैं। जब श्रीकृष्ण गोकुल में थे तब उन्होंने हमेशा उनके प्रेम का मान रखा। परंतु उद्धव के योग – संदेश को सुनकर गोपियों को लगता है कि मथुरा जाने के बाद कृष्ण बदल गए हैं। श्री कृष्ण ने प्रेम की मर्यादा का पालन नहीं किया। प्रेम की मर्यादा तो यही है कि प्रेम के बदले प्रेम दिया जाए किंतु श्री कृष्ण ने ज्ञान – योग का संदेश भेज कर हमारे प्रेम का अपमान किया है। हमारे साथ छल किया है।

6. कृष्ण के प्रति अपने अनन्य प्रेम को गोपियों ने किस प्रकार अभिव्यक्त किया है?

उत्तर – कृष्ण के प्रति अपने अनन्य प्रेम को गोपियों ने अनेक उदाहरण देकर अभिव्यक्त किया है –

1. जिस प्रकार गुड़ में चिपकी चींटी अंतिम साँस तक वहीं चिपकी रहती हैं। उसी प्रकार वे भी श्री कृष्ण से अलग नहीं हो सकतीं।

2. वे मन, कर्म और वचन से श्रीकृष्ण की हो चुकी हैं। वे सोते – जागते, दिन – रात, सपने में केवल कृष्ण के नाम की रट लगाए रखती हैं। उन्हें ही याद करती हैं।

3. जिस प्रकार हारिल नामक पक्षी एक लकड़ी को मज़बूती से पकड़कर रखता है उसी प्रकार गोपियों ने श्रीकृष्ण को अपने जीवन का आधार बनाकर मज़बूती से पकड़ रखा है।

7. गोपियों ने उद्धव से योग की शिक्षा कैसे लोगों को देने की बात कही है?

उत्तर – गोपियों ने उद्धव से योग की शिक्षा उन लोगों को देने की बात कही है जिनका मन चकरी के समान घूमता रहता है । जिनका मन अस्थिर है। योग मन को स्थिर करता है। गोपियों के मन तो पहले से ही श्रीकृष्ण के प्रति एकनिष्ठ हैं, स्थिर हैं। अतः उन्हें योग की कोई आवश्यकता ही नहीं है।

8. प्रस्तुत पदों के आधार पर गोपियों का योग-साधना के प्रति दृष्टिकोण स्पष्ट करें।

उत्तर – प्रस्ततु पदों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि गोपियाँ योग – साधना को अपने लिए व्यर्थ समझती हैं। वे योग को कड़वी ककड़ी के समान मानती हैं । जिस प्रकार कड़वी ककड़ी को निगला नहीं जा सकता । उसी प्रकार योग की बात उन्हें कड़वी लगती है।

मन को एकाग्र (स्थिर) करने के लिए योग उपयोगी हो सकता है परंतु उनका मन तो पहले से ही श्रीकृष्ण के प्रेम में स्थिर है। गोपियाँ योग को एक व्याधि बताती हैं। इस व्याधि या बीमारी के बारे में उन्होंने पहले न तो कभी सुना है, न देखा है और न ही कभी भोगा है। उनकी दृष्टि में उन्हें योग साधना की कोई आवश्यकता नहीं है।

9. गोपियों के अनुसार राजा का धर्म क्या होना चाहिए?

उत्तर – गोपियों के अनुसार राजा का धर्म यह होना चाहिए कि वे अपनी प्रजा को कभी सताए नहीं और सदैव उसकी भलाई के कार्य करता रहे। प्रजा को किसी भी प्रकार से सताना राजा को शोभा नहीं देता। इसके साथ ही वे अपनी प्रजा को अन्याय से बचाए। एक राजा का धर्म है कि वे अपनी प्रजा के सुख का ध्यान रखे और उसे हर प्रकार के कष्ट से बचाए।

10. गोपियों को कृष्ण में ऐसे कौन-से परिवर्तन दिखाई दिए जिनके कारण वे अपना मन वापस पा लेने की बात कहती हैं?

उत्तर – गोपियाँ कहती हैं कि श्री कृष्ण ने अब राजनीति सीख ली है। राजनीति जानने वाले अवसर के अनुसार बदल जाते हैं। उनके प्रति अब श्री कृष्ण का व्यवहार बदल गया है। उनका हाल जानने के लिए वे स्वयं नहीं आए उन्होंने उद्धव को यहाँ का समाचार जानने के लिए भेज दिया है। उनकी बुद्धि बहुत बढ़ गई है इसलिए उनके प्रेम को जानते हुए भी श्रीकृष्ण ने उनके लिए योग का संदेश भिजवाया है।उन्होंने प्रेम की मर्यादा का पालन नहीं किया।

जो दूसरों को अनीति (अन्याय) से मुक्ति दिलाते थे, वे अब स्वयं उनके साथ अन्याय कर रहे हैं। वे राजधर्म का पालन नहीं कर रहे और अपनी प्रजा अर्थात् उन्हें सता रहे हैं इसलिए वे अपना मन वापस पा लेने की बात कहती हैं।

11. गोपियों ने अपने वाक्चातुर्य के आधार पर ज्ञानी उद्धव को परास्त कर दिया, उनके वाक्चातुर्य की विशेषताएँ लिखिए?

उत्तर – गोपियाँ अपने वाक्चातुर्य से ज्ञानी उद्धव को परास्त कर देती हैं। उनके वाक्चातुर्य की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं –

1. गोपियाँ तर्कशील हैं। वे अपने तर्क के आधार पर उद्धव को चुप करा देती हैं। उनके तर्क अकाट्य हैं। उदाहरण के लिए – वे कहती हैं कि हमारा मन स्थिर है इसलिए हमें योग की आवश्यकता नहीं है।

2. गोपियों के वाक्चातुर्य में उदाहरणों की भरमार है। उन्हें व्यवहारिक ज्ञान था। वे अपनी सभी बातों को उदाहरणों के माध्यम से सही सिद्ध करने में सफल होती हैं। उनके उदाहरण अत्यंत सटीक हैं। उदाहरण के लिए – वे श्री कृष्ण के लिए अपने एकनिष्ठ प्रेम को सिद्ध करने के लिए गुड़ में चिपकी चींटी और हारिल की लकड़ी का उदाहरण देती हैं।

3. गोपियाँ व्यंग्य का सहारा लेकर अपने वाक्चातुर्य को धारदार बना देती हैं। उद्धव को खरी-खरी सुनाती हैं। गोपियाँ देखने में तो उद्धव की स्तुति करती हैं परंतु वास्तव में वे उनकी निंदा करती हैं। उदाहरण के लिए – वे उद्धव को कमल के पत्ते और तेल लगे घड़े के समान बताती हैं जो श्रीकृष्ण के समीप रहकर भी उनके रूप और प्रेम से प्रभावित नहीं हुए।

गोपियाँ बोलने की कला में कुशल थी परंतु उनकी सबसे बड़ी शक्ति श्रीकृष्ण के लिए उनका प्रेम था।

12. संकलित पदों को ध्यान में रखते हुए सूर के भ्रमरगीत की मुख्य विशेषताएँ बताइए?

उत्तर – भ्रमरगीत की मुख्य विशेषताएँ इस प्रकार हैं –

1. भक्त कवि सूरदास जी ने गोपियों के माध्यम से निर्गुण ब्रह्म के स्थान पर सगुण ब्रह्म की भक्ति को सरल बताया है। इसलिए गोपियों के द्वारा उन्होंने योग – साधना को कड़वी ककड़ी कहा है।

2. भ्रमरगीत में श्रीकृष्ण के विरह में दुखी गोपियों की दशा (स्थिति) का मार्मिक (दर्दभरा) चित्रण है।

3. गोपियों का श्रीकृष्ण के प्रति एकनिष्ठ प्रेम दर्शाया है।

4. उद्धव के ज्ञान पर गोपियों के वाक्चातुर्य, तर्क द्वारा कही गई बातों, उनके व्यंग्य बाणों और श्रीकृष्ण के लिए उनके गहरे प्रेम की विजय का चित्रण है।

5. कोमल शब्दों और मधुर ब्रजभाषा के कारण गोपियों के भाव और अधिक प्रभावपूर्ण बन गए हैं।

6. अलंकारों ने भाषा की सुंदरता को और बढ़ा दिया है।

Surdas ke Pad Important Question
सूरदास के पद महत्त्वपूर्ण प्रश्न

1. ‘प्रीति नदी में पाउँ न बोरयो’ का क्या अर्थ है ? पाठ सूरदास के पद पर बताइए। 

उत्तरः ‘प्रीति नदी में पाउँ न बोरयों’ का अर्थ है कि उद्धव श्री कृष्ण के प्रेम रूपी नदी के पास ही रहते हैं परंतु फिर भी उन्होंने उसमें पैर नहीं डुबोया अर्थात् श्रीकृष्ण के पास रहते हुए भी वे उनके मनमोहक रूप और प्रेम से प्रभावित नहीं हुए।

2. गोपियों ने स्वयं को अबला (कमज़ोर) और भोली क्यों कहा है?

उत्तर – गोपियों ने स्वयं को अबला इसलिए कहा क्योंकि वे उद्धव द्वारा बताए योग – साधना के कठिन रास्ते पर नहीं चल पाएँगी।

भोली कहकर वे यह बताना चाहती हैं कि उन्होंने तो बिना किसी छल-कपट के और लाभ-हानि का विचार किए बिना श्रीकृष्ण से सच्चा प्रेम किया है। ज्ञान की बातें उनके लिए नहीं हैं।

3. गोपियों के मन की बात मन में ही कैसे रह गई थी?

उत्तर – श्री कृष्ण के मथुरा चले जाने के कारण गोपियों उनके विरह में दुखी थी। उनके वापस लौटने पर अपने इस दुख को वे श्री कृष्ण को सुनाना चाहती थी कि उनके बिना उनका जीवन दुखों से भरा था। वे अपने मन की यह बात उन्हें बताना चाहती थी कि उन्होंने श्रीकृष्ण के वियोग में किस प्रकार दिन काटे हैं परंतु उद्धव द्वारा गोपियों को पता चलता है कि श्री कृष्ण गोकुल नहीं आ सकेंगे। वे बहुत बेचैन हो जाती हैं।

वे उद्धव से कहती हैं कि हमारे मन की बात हमारे मन में ही रह गई। हम अपना दुख किसके सामने जाकर प्रकट करें अर्थात् हम अपना दुख श्री कृष्ण के अलावा और किसी से नहीं कह सकती थी।

4. गोपियों ने श्रीकृष्ण को हारिल की लकड़ी क्यों कहा है?

उत्तरः गोपियों ने श्रीकृष्ण को हारिल की लकड़ी कहा गया है क्योंकि हारिल नाम का पक्षी हर समय अपने पंजों में लकड़ी दबाए रहता है। जब वह बैठता है तब भी लकड़ी पर ही बैठता है। कभी लकड़ी को छोड़ता नहीं है जैसे वह लकड़ी उसके जीवन का आधार (सहारा) हो। उसी प्रकार गोपियों भी रात-दिन कृष्ण-कृष्ण रटती रहती हैं। श्रीकृष्ण ही उनके जीवन का आधार हैं।

5. गोपियों ने योग के ज्ञान को व्याधि क्यों कहा है?

उत्तर : गोपियों के अनुसार योग साधना पूरी तरह निरर्थक है क्योंकि उनका मन कृष्ण के प्रेम में सदा से स्थिर है। वे तो कृष्ण के प्रति एकनिष्ठ प्रेम रखती हैं। उन्होंने योग-साधना को इससे पहले कभी नहीं देखा, न ही उसके बारे में सुना था। उन्होंने कभी ज्ञान – योग का अनुभव भी नहीं किया इसलिए वे यह तर्क देकर उसे व्याधि (बीमारी) बताकर अपनाने से मना करना चाहती हैं।

6. सूरदास के पदों के माध्यम से किन दो विचारधाराओं के बीच टकराव दिखाया गया है?

उत्तर : सूरदास के पदों के माध्यम से भक्ति-मार्ग और योग-मार्ग के बीच टकराव दिखाया गया है। कृष्ण प्रेम में लीन गोपियाँ भक्ति-मार्ग की अनुयायी (भक्ति मार्ग को मानने वाली) हैं। उनके आराध्य कृष्ण हैं जिनसे वे एकनिष्ठ प्रेम करती हैं। वे जीवन भर उनकी प्रेम-भक्ति में ही डूबी रहना चाहती हैं। दूसरी ओर उद्धव योग-मार्ग की शिक्षा देते हैं। परंतु उद्धव का योग-संदेश और योग-मार्ग गोपियों के प्रेम-मार्ग के सामने निरर्थक हो जाता है।

7. सूरदास सगुण भक्ति के समर्थक थे। तर्क देकर सिद्ध कीजिए।

उत्तर : सूरदास ने अपने पदों में कृष्ण के प्रति गोपियों के अनन्य प्रेम का चित्रण किया है। श्रीकृष्ण के प्रेम में लीन गोपियाँ स्वयं को गुड़ से चिपकी चींटी और श्रीकृष्ण को हारिल की लकड़ी बताती हैं। वहीं दूसरी ओर उन्होंने गोपियों द्वारा ज्ञान और योग-संदेश की निंदा की है। योग-साधना को गोपियों द्वारा कड़वी ककड़ी तथा व्याधि बताकर उसे त्यागने योग्य कहा है। इससे सिद्ध होता है कि वे प्रेम मार्ग के समर्थक थे।

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Comments

  1. Anonymous

    Thanks…students k liy saral v rochak

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