1. शहनाई की दुनिया में डुमराँव को क्यों याद किया जाता है?
अथवा
शहनाई और डुमराँव एक-दूसरे के लिए उपयोगी हैं, कैसे? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर – शहनाई की दुनिया में डुमराँव को निम्नलिखित कारणों से याद किया जाता है –
(i) विश्व प्रसिद्ध शहनाई वादक उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ का जन्म डुमराँव में हुआ था, जिस कारण बिहार के इस स्थान डुमराँव को प्रसिद्धि मिली।
(ii) शहनाई बजाने के लिए रीड का प्रयोग होता है जिसके सहारे शहनाई को फूँका जाता है। यह रीड नरकट नाम की घास से बनाई जाती है जो डुमराँव में, मुख्य रूप से सोन नदी के किनारों पर पाई जाती है। डुमराँव के कारण ही शहनाई जैसा वाद्य बजता है और शहनाई के लिए आवश्यक रीड और नरकट के कारण इस स्थान का महत्त्व है। अगर कहा जाए कि शहनाई और डुमराँव दोनों एक दूसरे के लिए उपयोगी हैं तो गलत नहीं होगा।
2. बिस्मिल्ला खाँ को शहनाई की मंगलध्वनि का नायक क्यों कहा गया है?
उत्तर – शहनाई को मंगल ध्वनि करने वाला वाद्य माना जाता है। सभी मांगलिक अवसरों पर शहनाई बजाई जाती है। उस्ताद बिस्मिल्लाह खान ने 80 सालों से भी अधिक समय तक शहनाई वादन की अपनी संगीत साधना द्वारा शहनाई की मंगल ध्वनि को भारत में ही नहीं विश्व में भी लोकप्रिय बनाया है। शहनाई वादन के प्रति उनकी लगन और निष्ठा के कारण ही शहनाई वादकों ने उनका नाम सर्वोपरि है। समारोह और अवसरों पर शहनाई की धुन सुनकर लोग बिस्मिल्लाह खान को याद करते हैं। उनके द्वारा बजाई गई शहनाई की जादुई आवाज़ का असर लोगों को प्रभावित करता आया है। उनकी शहनाई में सरगम भरा है। शहनाई बजाते हुए खुदा, गंगा मइया और अपने उस्ताद की नसीहत को ध्यान में रखते हुए उस्ताद बिस्मिल्लाह खान पवित्र भाव से संगीत में डूब जाते हैं। उनकी शहनाई को सुनने वालों को उनकी शहनाई में अजान अर्थात् प्रार्थना के लिए पुकार का असर महसूस होता है। शहनाई वादन के क्षेत्र में उन्होंने अपना एक विशेष स्थान बनाया है। यही कारण है कि बिस्मिल्लाह खान को शहनाई की मंगल ध्वनि का नायक कहा जाता है।
3. सुषिर-वाद्यों से क्या अभिप्राय है? शहनाई को ‘सुषिर वाद्यों में शाह’ की उपाधि क्यों दी गई होगी?
उत्तर – ऐसे वाद्य जिन्हें फूँककर बजाया जाता है, उन्हें सुषिर – वाद्य कहा जाता है। संगीत शास्त्र में शहनाई को सुषिर – वाद्यों में गिना जाता है। इनमें शहनाई, मुरली, बाँसुरी, बीन आदि आते हैं।
अरब देश में फूँक कर बजाए जाने वाले वाद्य जिनमें रीड का प्रयोग होता है, उसे नय कहते हैं। रीड अंदर से पोली होती है इसके सारे शहनाई को फूँका जाता है। शहनाई को शाहेनय अर्थात् ‘सुषिर वाद्यों में शाह’ की उपाधि दी गई है क्योंकि इसका प्रयोग मांगलिक अवसरों पर होता है। मंगल ध्वनि और मनमोहक धुन का निर्माण करने के कारण यह सुषिर वाद्यों में शाह अर्थात् सर्वश्रेष्ठ और राजा के समान मानी जाती है।
4. आशय स्पष्ट कीजिए-
(क) ‘फटा सुर न बख्शें। लुंगिया का क्या है, आज फटी है, तो कल सी जाएगी।”
उत्तर – भारत रत्न से सम्मानित बिस्मिल्लाह खाँ इतनी प्रतिष्ठा प्राप्त करने के बाद भी सरल और सादा जीवन जीते थे। एक दिन जब उनकी एक शिष्या ने उन्हें फटी हुए लुँगी पहनकर लोगों से मिलने के लिए टोका तो उन्होंने उसे समझाते हुए कहा कि उनके जीवन में अच्छे कपड़ों का कोई महत्त्व नहीं है। भारत रत्न भी उन्हें उनकी शहनाई पर मिला है। उनके लिए लुँगी का फटा होना उतना बुरा नहीं है जितना सुर का फटना। वे ऐसा मानते थे कि लुँगी तो सिली भी जा सकती है लेकिन सुर एक बार बिगड़ जाए तो फिर से सँभल पाना कठिन होता है। उन्होंने अपने जीवन में बनाव- सिंगार के स्थान पर केवल शहनाई के रियाज़ पर ही ध्यान दिया।
(ख) ‘मेरे मालिक सुर बख्श दे। सुर में वह तासीर पैदा कर कि आँखों से सच्चे मोती आँसू निकल आएँ।’
उत्तर – बिस्मिल्ला खाँ खुदा के सामने सजदा करते हुए केवल यही दुआ करते थे कि वे उन्हें ऐसा सच्चा सुर प्रदान करें जिसे सुन कर श्रोताओं (सुनने वालों) की आँखों से आँसू झलक जाएँ। उस सुर को सुन कर लोग हृदय की गहराइयों तक उसे महसूस करें। लोगों का मन प्रेम और करुणा से भर जाए और उन्हें सच्चा आनंद मिले। वह आनंद उनकी आँखों से आँसूओं के रूप में दिखाई दे, तभी वे अपनी संगीत – साधना को पूरा समझेंगे।
5. काशी में हो रहे कौन-से परिवर्तन बिस्मिल्ला खाँ को व्यथित करते थे?
उत्तर – सन् 2000 तक आते – आते काशी में अनेक परिवर्तन हुए जिनके बारे में सोचकर बिस्मिल्ला खाँ व्यथित (दुखी) होते थे। काशी विश्वनाथ के पास का इलाका जो पक्का महाल के नाम से जाना जाता है, वहाँ से मलाई बरफ़ बेचने वाले चले गए। खाँ साहब स्वभाव से स्वादी थे, उन्हें इसकी कमी खलती थी। अब उन्हें देसी घी में भी पहले जैसा स्वाद नहीं मिलता था इसलिए कचौड़ी – जलेबी के शौकीन खाँ साहब को अब इन चीज़ों में पहले वाले स्वाद की कमी महसूस होती थी। संगीत, साहित्य और अदब की सारी परंपराएँ खत्म हो गईं थी। अब संगतियों (गायक का साथ देने वाले) के लिए गायकों के मन में कोई आदर नहीं रहा। अब संगीतकार घंटों रियाज़ को महत्त्व नहीं देते थे। कजली, चैती जैसे प्रसिद्ध लोकगीतों के लिए लोगों के मन में प्रेम और सम्मान का अभाव उन्हें दुख पहुँचाता था।
6. पाठ में आए किन प्रसंगों के आधार पर आप कह सकते हैं कि-
(क) बिस्मिल्ला खाँ मिली-जुली संस्कृति के प्रतीक थे।
उत्तर – बिस्मिल्ला खाँ हिंदू – मुस्लिम एकता का एक उत्कृष्ट (बहुत अच्छा) उदाहरण थे। वे सच्चे अर्थों में मिली-जुली संस्कृति के प्रतीक थे। एक मुस्लिम होते हुए बिस्मिल्लाह खाँ के मन में जितनी निष्ठा अपने धर्म के प्रति थी उतनी ही आस्था (विश्वास) काशी विश्वनाथ और बालाजी मंदिर के लिए भी था। वे दोनों धर्मों का समान रूप से आदर करते थे। अपने नाना और मामा की तरह उन्होंने भी बालाजी मंदिर की ड्योढ़ी के नौबतखाने में शहनाई का रियाज़ किया और उसे खुदा की इबादत (प्रार्थना) समझा। यह उनके धर्मनिरपेक्ष होने का ही प्रमाण है। जिस प्रकार वे मुहर्रम पर नौहा बजाकर और शोक व्यक्त करके मुस्लिम धर्म की परंपरा को निभाते थे उसी प्रकार काशी के संकटमोचन मंदिर में हनुमान जयंती के अवसर पर कई वर्षों से होने वाली संगीत – सभा में अवश्य भाग लेते थे। अपने मजहब के प्रति अत्यंत समर्पित उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ की श्रद्धा काशी विश्वनाथ की प्रति भी अपार थी। वे जब भी काशी से बाहर रहते थे तब विश्वनाथ जी व बालाजी मंदिर की दिशा की ओर मुँह करके बैठते थे। अपने द्वारा बजाई गई शहनाई का पहला कुछ अंश वे विश्वनाथ जी को समर्पित करते थे। हिंदू धर्म की परंपराओं की प्रतीक काशी नगरी को वे छोड़कर नहीं जाना चाहते थे। वे गंगा को मइया और विश्वनाथ जी को बाबा कहते थे और मरते दम तक काशी में ही रहने की बात करते थे। वे कहते थे कि शहनाई और काशी से बढ़कर कोई जन्नत नहीं इस धरती पर हमारे लिए।
(ख) वे वास्तविक अर्थों में एक सच्चे इनसान थे।
उत्तर – बिस्मिल्ला खाँ जाति – धर्म के भेदभाव से ऊपर उठकर एक सच्चे साधक थे। भारत रत्न प्राप्त होने पर भी वे सादा और बनावट रहित जीवन जीते थे। वे खुदा से ऐसे सच्चे सुर की माँग करते जो सुनने वालों के हृदय को आनंद से भर दे। विश्व प्रसिद्ध शहनाई वादक होकर भी वे विनम्र थे। अहंकार से दूर, बच्चों के समान सरल स्वभाव और छल रहित हँसी हँसने वाले बिस्मिल्लाह खाँ अपनी शहनाई के जादू का श्रेय खुदा, गंगा मईया और अपने उस्ताद को देते थे।
7. बिस्मिल्ला खाँ के जीवन से जुड़ी उन घटनाओं और व्यक्तियों का उल्लेख करें जिन्होंने उनकी संगीत साधना को समृद्ध किया?
उत्तर – बिस्मिल्ला खाँ की संगीत – साधना को समृद्ध करने में अनेक व्यक्तियों और घटनाओं का योगदान रहा है –
(i) अमीरुद्दीन जब 4 साल के थे तब छुपाकर अपने नाना जी को शहनाई बजाते हुए सुनते थे। नाना जी के रियाज़ के बाद वे उनकी मीठी बजने वाली शहनाई को पाने के लिए उनकी ढेरों शहनाइयों को बजा – बजाकर देखते थे। लेकिन उन्हें वह मीठी वाली शहनाई न मिलती अर्थात् मधुर सुर न निकलने पर वे सोचते कि ‘लगता है मीठी वाली शहनाई नाना कहीं और रखते हैं।’
(ii) उनके मामू और बाद में उनके उस्ताद रहे अली बख्श खाँ जब शहनाई बजाते तो उनकी प्रशंसा में अमीरुद्दीन वाह – वाही करने या फिर हिलाने के स्थान पर पत्थर पटक दिया करते थे।
(iii) उस्ताद बिस्मिल्लाह खान 14 वर्ष की उम्र से बालाजी मंदिर के नौबतखाने पर रियाज़ (अभ्यास) के लिए जाने लगे थे। वहाँ उन्होंने सुर की बारीकियाँ सीखीं। रियाज़ के लिए वे उस रास्ते से जाते जहाँ से गुज़रते समय वे कभी रसूलन बाई और बातूलन बाई की ठुमरी, कभी टप्पे कभी दादर को सुन पाते। रसूलन और बातूलन के गीतों को सुनकर अमीरुद्दीन को खुशी मिलती। उन्होंने अपने अनेक साक्षात्कारों में यह स्वीकार किया है कि इन दोनों गायिका बहनों को सुनकर ही उनके मन में संगीत के प्रति प्रेम जागा। उन्हें संगीत की प्रेरणा इन्हीं से मिली।
(iv) पक्का महाल की कुलसुम हलवाइन जब गर्म देसी घई में कचौड़ी तलती तो ‘छन्न’ से उठने वाली आवाज़ में उन्हें संगीत के सुरों के आरोह-अवरोह (उतार-चढ़ाव) सुनाई देते थे।
(v) एक बार एक फकीर की प्रशंसा और बार-बार शहनाई बजाने के आग्रह को उन्होंने स्वीकार किया और वे शहनाई बजाने के लिए प्रेरित हुए।