Naubatkhane Mein Ibadat

Naubatkhane mein Ibadat – NCERT Class 10 Hindi A Kshitij

NCERT Study Material for Class 10 Hindi Kshitij Chapter 11 'Naubatkhane Mein Ibadat' 

हमारे ब्लॉग में आपको NCERT पाठ्यक्रम के अंतर्गत कक्षा 10 (Course A) की हिंदी पुस्तक ‘क्षितिज’ के पाठ पर आधारित सामग्री प्राप्त होगी जो पाठ की विषय-वस्तु को समझने में आपकी सहायता करेगी। इसे समझने के उपरांत आप पाठ से संबंधित किसी भी प्रश्न का उत्तर सरलता से दे सकेंगे।

यहाँ NCERT Class 10 Hindi के पाठ – 11 ‘नौबतखाने में इबादत’ – Naubatkhane mein Ibadat के मुख्य बिंदु (Important / Key points) दिए जा रहे हैं। साथ ही आपकी सहायता के लिए पाठ्यपुस्तक में दिए गए प्रश्नों के सटीक उत्तर (Textbook Question-Answers) एवं अतिरिक्त प्रश्नों के उत्तर (Extra Questions /Important Questions with Answers) सरल एवं भाषा में दिए गए हैं। आशा है पाठ – नौबतखाने में इबादत (Naubatkhane Mein Ibadat) की यह सामग्री आपके लिए उपयोगी सिद्ध होगी। 

Table of Contents

Naubatkhane mein Ibadat Notes
नौबतखाने में इबादत - सहायक सामाग्री

~ नौबतखाने में इबादत पाठ में लेखक यतींद्र मिश्र ने भारत रत्न से सम्मानित प्रसिद्ध शहनाई वादक उस्ताद बिस्मिल्लाह खान का व्यक्ति चित्र प्रस्तुत किया है। लेखक ने पाठ में उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ के जीवन के अनेक प्रसंगों और घटनाओं के साथ-साथ उनके जीवन से जुड़े तथ्यों का भी वर्णन किया है। 

~ पाठ में दी गई सामग्री (content) द्वारा उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ का परिचय – 

1. अमीरुद्दीन अर्थात् बिस्मिल्लाह खान का जन्म सन 1916 में बिहार के एक संगीत प्रेमी परिवार में हुआ। 

2. उनके बड़े भाई का नाम शम्सुद्दीन था। वे उम्र में इनसे 3 साल बड़े थे। 
3. इनके परदादा उस्ताद हुसैन खाँ डुमराँव में रहते थे। 
4. इनके पिता का नाम उस्ताद पैगंबर बख्श खाँ और माता का नाम मिट्ठन है। 
5. 6 साल की उम्र में अमीरुद्दीन अपने ननिहाल (नानी के घर) काशी में आ गए थे। 
6. काशी में उनके दोनों मामा सादिक हुसैन और अलीबख्श, देश के जाने-माने शहनाई वादक थे। वे रोज़ बालाजी के मंदिर की ड्योढ़ी पर शहनाई बजाकर अपने दिन की शुरुआत करते थे। साथ ही अनेक रियासतों के दरबार में शहनाई बजाने जाते थे। 
7. अमीरुद्दीन के मामा कभी मुल्तानी, कभी कल्याण तो कभी भैरव, बदल – बदल कर राग बजाते थे। 6 साल की उम्र तक अमीरुद्दीन को संगीत की कुछ भी समझ नहीं थी। 
8. ये उनके मामा का खानदानी पेशा (पैसा कमाने का कार्य) था। बिस्मिल्ला खान के नाना जी भी बालाजी मंदिर की ड्योढ़ी पर शहनाई बजाते थे। 6 साल की उम्र तक अमीरुद्दीन को राग और संगीत का कोई ज्ञान नहीं था। अपने मामा के मुँह से रागों के नाम सुनकर वह उनका मतलब नहीं समझ पाए थे।

उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ के व्यक्तित्व की विशेषताएँ – 

1. शहनाई की मंगल ध्वनि के नायक उस्ताद बिस्मिल्लाह खान –
 शहनाई को मंगल ध्वनि करने वाला वाद्य माना जाता है। सभी मांगलिक अवसरों पर शहनाई बजाई जाती है। उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ ने 80 सालों से भी अधिक समय तक शहनाई वादन की अपनी संगीत साधना द्वारा शहनाई की मंगल ध्वनि को भारत में ही नहीं विश्व में भी लोकप्रिय बनाया है। शहनाई वादन के प्रति उनकी लगन और निष्ठा के कारण ही शहनाई वादकों ने उनका नाम सर्वोपरि है। समारोह और अवसरों पर शहनाई की धुन सुनकर लोग बिस्मिल्ला खाँ को याद करते हैं। उनके द्वारा बजाई गई शहनाई की जादुई आवाज़ का असर लोगों को प्रभावित करता आया है। उनकी शहनाई में सरगम भरा है। शहनाई बजाते हुए खुदा, गंगा मइया और अपने उस्ताद की नसीहत को ध्यान में रखते हुए उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ पवित्र भाव से संगीत में डूब जाते हैं। उनकी शहनाई को सुनने वालों को उनकी शहनाई में अजान अर्थात् प्रार्थना के लिए पुकार का असर महसूस होता है। शहनाई वादन के क्षेत्र में उन्होंने अपना एक विशेष स्थान बनाया है। यही कारण है कि बिस्मिल्ला खाँ को शहनाई की मंगल ध्वनि का नायक कहा जाता है। 
2. कला प्रेमी / कला के उपासक (कला को पूजने वाले) – 
उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ को छोटी उम्र में संगीत का ज्ञान नहीं था लेकिन वे बचपन से ही कला प्रेमी / कला के उपासक (कला को पूजने वाले) थे। निकाल म्नलिखित बिंदुओं से इस बात का पता चलता है- 
(i) अमीरुद्दीन जब 4 साल के थे तब छुपाकर अपने नाना जी को शहनाई बजाते हुए सुनते थे। नाना जी के रियाज़ के बाद वे उनकी मीठी बजने वाली शहनाई को पाने के लिए उनकी ढेरों शहनाइयों को बजा – बजाकर देखते थे। लेकिन उन्हें वह मीठी वाली शहनाई न मिलती अर्थात् मधुर सुर न निकलने पर वे सोचते कि ‘लगता है मीठी वाली शहनाई नाना कहीं और रखते हैं।’
(ii) उनके मामू और बाद में उनके उस्ताद रहे अली बख्श खाँ जब शहनाई बजाते तो उनकी प्रशंसा में अमीरुद्दीन वाह – वाही करने या फिर हिलाने के स्थान पर पत्थर पटक दिया करते थे। 
(iii) उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ 14 वर्ष की उम्र से बालाजी मंदिर के नौबतखाने पर रियाज़ (अभ्यास) के लिए जाने लगे थे। वहाँ उन्होंने सुर की बारीकियाँ सीखीं। रियाज़ के लिए वे उस रास्ते से जाते जहाँ से गुज़रते समय वे कभी रसूलन बाई और बातूलन बाई की ठुमरी, कभी टप्पे कभी दादर को सुन पाते। रसूलन और बातूलन के गीतों को सुनकर अमीरुद्दीन को खुशी मिलती। उन्होंने अपने अनेक साक्षात्कारों में यह स्वीकार किया है कि इन दोनों गायिका बहनों को सुनकर ही उनके मन में संगीत के प्रति प्रेम जागा। उन्हें संगीत की प्रेरणा इन्हीं से मिली। 
(iv) पक्का महाल की कुलसुम हलवाइन जब गर्म देसी घई में कचौड़ी तलती तो ‘छन्न’ से उठने वाली आवाज़ में उन्हें संगीत के सुरों के आरोह-अवरोह (उतार-चढ़ाव) सुनाई देते थे। 
3. सच्चे संगीत साधक – 
उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ ने शहनाई वादन को अपनी संगीत साधना के समान समझा। वे खुदा से सच्चे सुर की माँग किया करते थे। पाँच समय की नमाज़ में और लाखों सजदों में वे उसी सुर को पाने की प्रार्थना करते जो लोगों के दिल को छू जाए। वे कला के लिए शहनाई बजाते थे। उन्होंने धन कमाने की इच्छा से कभी शहनाई वादन नहीं किया। जीवन के अंतिम समय तक वे अपने सुरों को निखारने के लिए रियाज़ करते रहे। 
4. अपने धर्म के प्रति निष्ठावान – 
उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ अपने धर्म के प्रति बहुत आदर भाव रखते थे। वे नियम से पाँचों समय की नमाज अदा करते (पढ़ते) थे। शहनाई बजाते समय भी वे खुदा को याद रखते थे, इसलिए लोगों को उनकी शहनाई में अजान का – सा असर महसूस होता था। अपने धर्म के महत्त्वपूर्ण पर्व मुहर्रम से बिस्मिल्ला खाँ का बहुत गहरा जुड़ाव (संबंध) था। इस महीने में वे हज़रत इमाम हुसैन और उनके वंशजों के प्रति पूरे 10 दिन का शोक मनाते थे। इन दिनों में उनके खानदान का कोई व्यक्ति न तो शहनाई बजना था न ही किसी संगीत कार्यक्रम में भाग लेता था। महीने की आठवीं तारीख, जो उनके लिए खास महत्त्व की होती है, इस दिन खाँ साहब खड़े होकर शहनाई बजाते थे और दालमंडी की करीब 8 किलोमीटर की दूरी पर स्थित फातमान दरगाह तक पैदल रोते हुए और नौहा बजाते हुए जाते थे। इस दिन वे शहनाई से कोई राग – रागिनियाँ नहीं बजते थे। इस प्रकार बिस्मिल्ला खाँ और उनके परिवार के लोग अपने धर्म से जुड़ी हज़ार वर्षों से चली आ रही इस परंपरा को पूरी निष्ठा से संपन्न (पूरा) करते थे। 
5. संवेदनशील – 
मुहर्रम की परंपरा को निभाते हुए का हज़रत इमाम हुसैन और उनके वंशजों के बलिदान को याद करके दुखी होने में एक बड़े कलाकार का मानवता से भरा संवेदनशील रूप सामने आता है। साथ ही काशी – पक्का महल से बहुत सारी परंपराओं के खत्म होने पर भी वे दुखी होते थे।
6. मिली जुली संस्कृति के प्रतीक / सभी धर्म के लिए प्रेम एवं धर्मनिरपेक्षता – 
बिस्मिल्ला खाँ हिंदू – मुस्लिम एकता का एक उत्कृष्ट (बहुत अच्छा) उदाहरण थे। वे सच्चे अर्थों में मिली-जुली संस्कृति के प्रतीक थे। एक मुस्लिम होते हुए बिस्मिल्ला खाँ के मन में जितनी निष्ठा अपने धर्म के प्रति थी उतनी ही आस्था (विश्वास) काशी विश्वनाथ और बालाजी मंदिर के लिए भी था। वे दोनों धर्मों का समान रूप से आदर करते थे। अपने नाना और मामा की तरह उन्होंने भी बालाजी मंदिर की ड्योढ़ी के नौबतखाने में शहनाई का रियाज़ किया और उसे खुदा की इबादत (प्रार्थना) समझा। यह उनके धर्मनिरपेक्ष होने का ही प्रमाण है। जिस प्रकार वे मुहर्रम पर नौहा बजाकर और शोक व्यक्त करके मुस्लिम धर्म की परंपरा को निभाते थे उसी प्रकार काशी के संकटमोचन मंदिर में हनुमान जयंती के अवसर पर कई वर्षों से होने वाली संगीत – सभा में अवश्य भाग लेते थे। अपने मजहब के प्रति अत्यंत समर्पित उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ की श्रद्धा काशी विश्वनाथ की प्रति भी अपार थी। वे जब भी काशी से बाहर रहते थे तब विश्वनाथ जी व बालाजी मंदिर की दिशा की ओर मुँह करके बैठते थे। अपने द्वारा बजाई गई शहनाई का पहला कुछ अंश वे विश्वनाथ जी को समर्पित करते थे। हिंदू धर्म की परंपराओं की प्रतीक काशी नगरी को वे छोड़कर नहीं जाना चाहते थे। वे गंगा को मइया और विश्वनाथ जी को बाबा कहते थे और मरते दम तक काशी में ही रहने की बात करते थे। वे कहते थे कि शहनाई और काशी से बढ़कर कोई जन्नत नहीं इस धरती पर हमारे लिए।
7. विनम्रता – 
बिस्मिल्ला खाँ के व्यक्तित्व में विनम्रता कूट-कूट कर भरी थी। शहनाई की मंगल ध्वनि के नायक बनकर और भारत रत्न होकर भी 80 साल के बिस्मिल्ला खाँ यही माना मानते थे कि उन्हें सातों सुरों को बरतने की तमीज सही ढंग से अभी तक नहीं आई है इसलिए वे नमाज़ के बाद सजदे में खुदा से प्रार्थना करते थे कि वे उन्हें एक सच्चा सुर बख्श दें। उनकी जादू – भरी शहनाई को सुनकर जब लोग उनकी प्रशंसा करते हुए कहते – ‘सुबहान अल्लाह’, तब वे बड़ी विनम्रता से अपनी शहनाई का सारा श्रेय भगवान को देते हुए कहते – ‘अलहमदुलिल्लाह’ अर्थात् सब ईश्वर की कृपा है। अपनी विनम्रता के कारण ही उन्होंने एक फकीर के कहने पर शहनाई बजाई थी और उन्होंने अपनी शहनाई से संसार को सुरीला बना दिया। 
8. सरल और सादगी भरा जीवन जीने वाले –  
भारत रत्न से सम्मानित बिस्मिल्ला खाँ इतनी प्रतिष्ठा प्राप्त करने के बाद भी सरल और सादा जीवन जीते थे। एक दिन जब उनकी एक शिष्या ने उन्हें फटी हुए लुँगी पहनकर लोगों से मिलने के लिए टोका तो उन्होंने उसे समझाते हुए कहा कि उनके जीवन में अच्छे कपड़ों का कोई महत्त्व नहीं है। भारत रत्न भी उन्हें उनकी शहनाई पर मिला है। उनके लिए लुँगी का फटा होना उतना बुरा नहीं है जितना सुर का फटना। वे ऐसा मानते थे कि लुँगी तो सिली भी जा सकती है लेकिन सुर एक बार बिगड़ जाए तो फिर से सँभल पाना कठिन होता है। उन्होंने अपने जीवन में बनाव- सिंगार के स्थान पर केवल शहनाई के रियाज़ पर ही ध्यान दिया। 
9. रसिक और स्वादी – 
बिस्मिल्ला खाँ रसिक स्वभाव के थे। सुकून के क्षणों में वे अपनी जवानी के दिनों को याद करते थे। अपने रियाज़ को कम, उन दिनों के अपने जुनून को अधिक याद करते थे। रसूलन बाई और बतूलन बाई की गायिकी को सुनकर वे बहुत खुश होते थे। बचपन के समय में उन्हें फ़िल्मों का भी बहुत शौक था। फ़िल्म देखने के लिए वे दो पैसे अपने मामू से, दो पैसे अपनी मौसी से और दो पैसे अपनी नानी से लेकर घंटा लाइन में लगकर थर्ड क्लास की 6 पैसे की टिकट खरीद कर फ़िल्म देखा करते थे। जब थोड़े बड़े हुए तो बालाजी मंदिर में शहनाई बजाकर जो कमाई होती थी, उससे फ़िल्म देखा करते थे। सुलोचना और गीताबाली उनकी पसंदीदा अभिनेत्रियाँ थीं। उन्हें याद करके एक बड़ी – सी मुस्कान के साथ उनके गालों पर चमक आ जाती थी। सुलोचना की कोई नई फिल्म वे देखने से नहीं चूकते थे और कुलसुम हलवाइन की देसी घी की कचौड़ियों के भी वे बहुत शौकीन थे। अतः वे रियाज़ी और स्वादी दोनों ही थे। 
~ मृत्यु – 
80 वर्ष तक संगीत को पूरी तरह से सीखने की ललक को अपने अंदर जिंदा रखते हुए 90 वर्ष की आयु में उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ 21 अगस्त 2006 को इस संसार से विदा हुए। 

Naubatkhane mein Ibadat Question Answers
नौबतखाने में इबादत - प्रश्न उत्तर

1. शहनाई की दुनिया में डुमराँव को क्यों याद किया जाता है?

अथवा 

शहनाई और डुमराँव एक-दूसरे के लिए उपयोगी हैं, कैसे? स्पष्ट कीजिए। 
उत्तर – शहनाई की दुनिया में डुमराँव को निम्नलिखित कारणों से याद किया जाता है – 
(i) विश्व प्रसिद्ध शहनाई वादक उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ का जन्म डुमराँव में हुआ था, जिस कारण बिहार के इस स्थान डुमराँव को प्रसिद्धि मिली। 
(ii) शहनाई बजाने के लिए रीड का प्रयोग होता है जिसके सहारे शहनाई को फूँका जाता है। यह रीड नरकट नाम की घास से बनाई जाती है जो डुमराँव में, मुख्य रूप से सोन नदी के किनारों पर पाई जाती है। डुमराँव के कारण ही शहनाई जैसा वाद्य बजता है और शहनाई के लिए आवश्यक रीड और नरकट के कारण इस स्थान का महत्त्व है। अगर कहा जाए कि शहनाई और डुमराँव दोनों एक दूसरे के लिए उपयोगी हैं तो गलत नहीं होगा। 
2. बिस्मिल्ला खाँ को शहनाई की मंगलध्वनि का नायक क्यों कहा गया है?
उत्तर – शहनाई को मंगल ध्वनि करने वाला वाद्य माना जाता है। सभी मांगलिक अवसरों पर शहनाई बजाई जाती है। उस्ताद बिस्मिल्लाह खान ने 80 सालों से भी अधिक समय तक शहनाई वादन की अपनी संगीत साधना द्वारा शहनाई की मंगल ध्वनि को भारत में ही नहीं विश्व में भी लोकप्रिय बनाया है। शहनाई वादन के प्रति उनकी लगन और निष्ठा के कारण ही शहनाई वादकों ने उनका नाम सर्वोपरि है। समारोह और अवसरों पर शहनाई की धुन सुनकर लोग बिस्मिल्लाह खान को याद करते हैं। उनके द्वारा बजाई गई शहनाई की जादुई आवाज़ का असर लोगों को प्रभावित करता आया है। उनकी शहनाई में सरगम भरा है। शहनाई बजाते हुए खुदा, गंगा मइया और अपने उस्ताद की नसीहत को ध्यान में रखते हुए उस्ताद बिस्मिल्लाह खान पवित्र भाव से संगीत में डूब जाते हैं। उनकी शहनाई को सुनने वालों को उनकी शहनाई में अजान अर्थात् प्रार्थना के लिए पुकार का असर महसूस होता है। शहनाई वादन के क्षेत्र में उन्होंने अपना एक विशेष स्थान बनाया है। यही कारण है कि बिस्मिल्लाह खान को शहनाई की मंगल ध्वनि का नायक कहा जाता है। 
3. सुषिर-वाद्यों से क्या अभिप्राय है? शहनाई को ‘सुषिर वाद्यों में शाह’ की उपाधि क्यों दी गई होगी?
उत्तर – ऐसे वाद्य जिन्हें फूँककर बजाया जाता है, उन्हें सुषिर – वाद्य कहा जाता है। संगीत शास्त्र में शहनाई को सुषिर – वाद्यों में गिना जाता है। इनमें शहनाई, मुरली, बाँसुरी, बीन आदि आते हैं। 
अरब देश में फूँक कर बजाए जाने वाले वाद्य जिनमें रीड का प्रयोग होता है, उसे नय कहते हैं। रीड अंदर से पोली होती है इसके सारे शहनाई को फूँका जाता है। शहनाई को शाहेनय अर्थात् ‘सुषिर वाद्यों में शाह’ की उपाधि दी गई है क्योंकि इसका प्रयोग मांगलिक अवसरों पर होता है। मंगल ध्वनि और मनमोहक धुन का निर्माण करने के कारण यह सुषिर वाद्यों में शाह अर्थात् सर्वश्रेष्ठ और राजा के समान मानी जाती है।  
4. आशय स्पष्ट कीजिए-
(क) ‘फटा सुर न बख्शें। लुंगिया का क्या है, आज फटी है, तो कल सी जाएगी।”
उत्तर – भारत रत्न से सम्मानित बिस्मिल्लाह खाँ इतनी प्रतिष्ठा प्राप्त करने के बाद भी सरल और सादा जीवन जीते थे। एक दिन जब उनकी एक शिष्या ने उन्हें फटी हुए लुँगी पहनकर लोगों से मिलने के लिए टोका तो उन्होंने उसे समझाते हुए कहा कि उनके जीवन में अच्छे कपड़ों का कोई महत्त्व नहीं है। भारत रत्न भी उन्हें उनकी शहनाई पर मिला है। उनके लिए लुँगी का फटा होना उतना बुरा नहीं है जितना सुर का फटना। वे ऐसा मानते थे कि लुँगी तो सिली भी जा सकती है लेकिन सुर एक बार बिगड़ जाए तो फिर से सँभल पाना कठिन होता है। उन्होंने अपने जीवन में बनाव- सिंगार के स्थान पर केवल शहनाई के रियाज़ पर ही ध्यान दिया।  
(ख) ‘मेरे मालिक सुर बख्श दे। सुर में वह तासीर पैदा कर कि आँखों से सच्चे मोती आँसू निकल आएँ।’
उत्तर – बिस्मिल्ला खाँ खुदा के सामने सजदा करते हुए केवल यही दुआ करते थे कि वे उन्हें ऐसा सच्चा सुर प्रदान करें जिसे सुन कर श्रोताओं (सुनने वालों) की आँखों से आँसू झलक जाएँ। उस सुर को सुन कर लोग हृदय की गहराइयों तक उसे महसूस करें। लोगों का मन प्रेम और करुणा से भर जाए और उन्हें सच्चा आनंद मिले। वह आनंद उनकी आँखों से आँसूओं के रूप में दिखाई दे, तभी वे अपनी संगीत – साधना को पूरा समझेंगे। 
5. काशी में हो रहे कौन-से परिवर्तन बिस्मिल्ला खाँ को व्यथित करते थे?
उत्तर – सन् 2000 तक आते – आते काशी में अनेक परिवर्तन हुए जिनके बारे में सोचकर बिस्मिल्ला खाँ व्यथित (दुखी) होते थे। काशी विश्वनाथ के पास का इलाका जो पक्का महाल के नाम से जाना जाता है, वहाँ से मलाई बरफ़ बेचने वाले चले गए। खाँ साहब स्वभाव से स्वादी थे, उन्हें इसकी कमी खलती थी। अब उन्हें देसी घी में भी पहले जैसा स्वाद नहीं मिलता था इसलिए कचौड़ी – जलेबी के शौकीन खाँ साहब को अब इन चीज़ों में पहले वाले स्वाद की कमी महसूस होती थी। संगीत, साहित्य और अदब की सारी परंपराएँ खत्म हो गईं थी। अब संगतियों (गायक का साथ देने वाले) के लिए गायकों के मन में कोई आदर नहीं रहा। अब संगीतकार घंटों रियाज़ को महत्त्व नहीं देते थे। कजली, चैती जैसे प्रसिद्ध लोकगीतों के लिए लोगों के मन में प्रेम और सम्मान का अभाव उन्हें दुख पहुँचाता था। 
6. पाठ में आए किन प्रसंगों के आधार पर आप कह सकते हैं कि-
(क) बिस्मिल्ला खाँ मिली-जुली संस्कृति के प्रतीक थे।
उत्तर – बिस्मिल्ला खाँ हिंदू – मुस्लिम एकता का एक उत्कृष्ट (बहुत अच्छा) उदाहरण थे। वे सच्चे अर्थों में मिली-जुली संस्कृति के प्रतीक थे। एक मुस्लिम होते हुए बिस्मिल्लाह खाँ के मन में जितनी निष्ठा अपने धर्म के प्रति थी उतनी ही आस्था (विश्वास) काशी विश्वनाथ और बालाजी मंदिर के लिए भी था। वे दोनों धर्मों का समान रूप से आदर करते थे। अपने नाना और मामा की तरह उन्होंने भी बालाजी मंदिर की ड्योढ़ी के नौबतखाने में शहनाई का रियाज़ किया और उसे खुदा की इबादत (प्रार्थना) समझा। यह उनके धर्मनिरपेक्ष होने का ही प्रमाण है। जिस प्रकार वे मुहर्रम पर नौहा बजाकर और शोक व्यक्त करके मुस्लिम धर्म की परंपरा को निभाते थे उसी प्रकार काशी के संकटमोचन मंदिर में हनुमान जयंती के अवसर पर कई वर्षों से होने वाली संगीत – सभा में अवश्य भाग लेते थे। अपने मजहब के प्रति अत्यंत समर्पित उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ की श्रद्धा काशी विश्वनाथ की प्रति भी अपार थी। वे जब भी काशी से बाहर रहते थे तब विश्वनाथ जी व बालाजी मंदिर की दिशा की ओर मुँह करके बैठते थे। अपने द्वारा बजाई गई शहनाई का पहला कुछ अंश वे विश्वनाथ जी को समर्पित करते थे। हिंदू धर्म की परंपराओं की प्रतीक काशी नगरी को वे छोड़कर नहीं जाना चाहते थे। वे गंगा को मइया और विश्वनाथ जी को बाबा कहते थे और मरते दम तक काशी में ही रहने की बात करते थे। वे कहते थे कि शहनाई और काशी से बढ़कर कोई जन्नत नहीं इस धरती पर हमारे लिए। 
(ख) वे वास्तविक अर्थों में एक सच्चे इनसान थे।
उत्तर – बिस्मिल्ला खाँ जाति – धर्म के भेदभाव से ऊपर उठकर एक सच्चे साधक थे। भारत रत्न प्राप्त होने पर भी वे सादा और बनावट रहित जीवन जीते थे। वे खुदा से ऐसे सच्चे सुर की माँग करते जो सुनने वालों के हृदय को आनंद से भर दे। विश्व प्रसिद्ध शहनाई वादक होकर भी वे विनम्र थे। अहंकार से दूर, बच्चों के समान सरल स्वभाव और छल रहित हँसी हँसने वाले बिस्मिल्लाह खाँ अपनी शहनाई के जादू का श्रेय खुदा, गंगा मईया और अपने उस्ताद को देते थे। 
7. बिस्मिल्ला खाँ के जीवन से जुड़ी उन घटनाओं और व्यक्तियों का उल्लेख करें जिन्होंने उनकी संगीत साधना को समृद्ध किया?
उत्तर – बिस्मिल्ला खाँ की संगीत – साधना को समृद्ध करने में अनेक व्यक्तियों और घटनाओं का योगदान रहा है – 
(i) अमीरुद्दीन जब 4 साल के थे तब छुपाकर अपने नाना जी को शहनाई बजाते हुए सुनते थे। नाना जी के रियाज़ के बाद वे उनकी मीठी बजने वाली शहनाई को पाने के लिए उनकी ढेरों शहनाइयों को बजा – बजाकर देखते थे। लेकिन उन्हें वह मीठी वाली शहनाई न मिलती अर्थात् मधुर सुर न निकलने पर वे सोचते कि ‘लगता है मीठी वाली शहनाई नाना कहीं और रखते हैं।’
(ii) उनके मामू और बाद में उनके उस्ताद रहे अली बख्श खाँ जब शहनाई बजाते तो उनकी प्रशंसा में अमीरुद्दीन वाह – वाही करने या फिर हिलाने के स्थान पर पत्थर पटक दिया करते थे। 
(iii) उस्ताद बिस्मिल्लाह खान 14 वर्ष की उम्र से बालाजी मंदिर के नौबतखाने पर रियाज़ (अभ्यास) के लिए जाने लगे थे। वहाँ उन्होंने सुर की बारीकियाँ सीखीं। रियाज़ के लिए वे उस रास्ते से जाते जहाँ से गुज़रते समय वे कभी रसूलन बाई और बातूलन बाई की ठुमरी, कभी टप्पे कभी दादर को सुन पाते। रसूलन और बातूलन के गीतों को सुनकर अमीरुद्दीन को खुशी मिलती। उन्होंने अपने अनेक साक्षात्कारों में यह स्वीकार किया है कि इन दोनों गायिका बहनों को सुनकर ही उनके मन में संगीत के प्रति प्रेम जागा। उन्हें संगीत की प्रेरणा इन्हीं से मिली। 
(iv) पक्का महाल की कुलसुम हलवाइन जब गर्म देसी घई में कचौड़ी तलती तो ‘छन्न’ से उठने वाली आवाज़ में उन्हें संगीत के सुरों के आरोह-अवरोह (उतार-चढ़ाव) सुनाई देते थे।
(v) एक बार एक फकीर की प्रशंसा और बार-बार शहनाई बजाने के आग्रह को उन्होंने स्वीकार किया और वे शहनाई बजाने के लिए प्रेरित हुए। 

रचना और अभिव्यक्ति

8. बिस्मिल्ला खाँ के व्यक्तित्व की कौन-कौन सी विशेषताओं ने आपको प्रभावित किया?

उत्तर – बिस्मिल्लाह खाँ के व्यक्तित्व की अनेक विशेषताएँ हैं – वे कला प्रेमी थे, सच्चे संगीत साधन थे, वे अपने धर्म के प्रति निष्ठावान थे, अत्यंत संवेदनशील थे। मुहर्रम के दिन हज़रत इमाम हुसैन के वंशजों के बलिदान को याद करके दुखी होते थे। रियाज़ी होने के साथ-साथ रसिक भी थे। फ़िल्मों और अच्छे खाने के शौकीन थे। भारत रत्न विश्व प्रसिद्ध शहनाई वादक होने पर भी सरल और सादगी भरा जीवन जीते थे और बड़ी विनम्रता से अपनी शहनाई का सारा श्रेय खुदा को देते थे। बिस्मिल्लाह खाँ के व्यक्तित्व की यह सारी विशेषताएँ उन्हें विशेष व्यक्ति बनाती हैं परंतु मुझे उनके व्यक्तित्व की जो विशेषता सबसे अधिक प्रभावित करती है वह है उनका हिंदू धर्म और परंपराओं के लिए समान आदर भाव। अपने नाना और मामा की तरह उन्होंने भी बालाजी मंदिर की ड्योढ़ी के नौबतखाने में शहनाई का रियाज़ किया और उसे खुदा की इबादत (प्रार्थना) समझा। यह उनके धर्मनिरपेक्ष होने का ही प्रमाण है। जिस प्रकार वे मुहर्रम पर नौहा बजाकर और शोक व्यक्त करके मुस्लिम धर्म की परंपरा को निभाते थे उसी प्रकार काशी के संकटमोचन मंदिर में हनुमान जयंती के अवसर पर कई वर्षों से होने वाली संगीत – सभा में अवश्य भाग लेते थे। अपने मजहब के प्रति अत्यंत समर्पित उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ की श्रद्धा काशी विश्वनाथ की प्रति भी अपार थी। वे जब भी काशी से बाहर रहते थे तब विश्वनाथ जी व बालाजी मंदिर की दिशा की ओर मुँह करके बैठते थे। अपने द्वारा बजाई गई शहनाई का पहला कुछ अंश वे विश्वनाथ जी को समर्पित करते थे। इनकी यह विशेषता इन्हें महान बनाती है। 
9. मुहर्रम से बिस्मिल्ला खाँ के जुड़ाव को अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर – अपने धर्म के महत्त्वपूर्ण पर्व मुहर्रम से बिस्मिल्लाह खान का बहुत गहरा जुड़ाव (संबंध) था। इस महीने में वे हज़रत इमाम हुसैन और उनके वंशजों के प्रति पूरे 10 दिन का शोक मनाते थे। इन दिनों में उनके खानदान का कोई व्यक्ति न तो शहनाई बजना था न ही किसी संगीत कार्यक्रम में भाग लेता था। महीने की आठवीं तारीख, जो उनके लिए खास महत्त्व की होती है, इस दिन खाँ साहब खड़े होकर शहनाई बजाते थे और दालमंडी की करीब 8 किलोमीटर की दूरी पर स्थित फातमान दरगाह तक पैदल रोते हुए और नौहा बजाते हुए जाते थे। इस दिन वे शहनाई से कोई राग – रागिनियाँ नहीं बजते थे। इस प्रकार बिस्मिल्लाह खाँ और उनके परिवार के लोग अपने धर्म से जुड़ी हज़ार वर्षों से चली आ रही इस परंपरा को पूरी निष्ठा से संपन्न (पूरा) करते थे। 
10. बिस्मिल्ला खाँ कला के अनन्य उपासक थे, तर्क सहित उत्तर दीजिए।
उत्तर – उस्ताद बिस्मिल्लाह खान को छोटी उम्र में संगीत का ज्ञान नहीं था लेकिन वे बचपन से ही कला प्रेमी / कला के उपासक (कला को पूजने वाले) थे। निम्नलिखित बिंदुओं से इस बात का पता चलता है- 
(i) अमीरुद्दीन जब 4 साल के थे तब छुपाकर अपने नाना जी को शहनाई बजाते हुए सुनते थे। नाना जी के रियाज़ के बाद वे उनकी मीठी बजने वाली शहनाई को पाने के लिए उनकी ढेरों शहनाइयों को बजा – बजाकर देखते थे। लेकिन उन्हें वह मीठी वाली शहनाई न मिलती अर्थात् मधुर सुर न निकलने पर वे सोचते कि ‘लगता है मीठी वाली शहनाई नाना कहीं और रखते हैं।’
(ii) उनके मामू और बाद में उनके उस्ताद रहे अली बख्श खाँ जब शहनाई बजाते तो उनकी प्रशंसा में अमीरुद्दीन वाह – वाही करने या फिर हिलाने के स्थान पर पत्थर पटक दिया करते थे। 
(iii) उस्ताद बिस्मिल्लाह खान 14 वर्ष की उम्र से बालाजी मंदिर के नौबतखाने पर रियाज़ (अभ्यास) के लिए जाने लगे थे। वहाँ उन्होंने सुर की बारीकियाँ सीखीं। रियाज़ के लिए वे उस रास्ते से जाते जहाँ से गुज़रते समय वे कभी रसूलन बाई और बातूलन बाई की ठुमरी, कभी टप्पे कभी दादर को सुन पाते। रसूलन और बातूलन के गीतों को सुनकर अमीरुद्दीन को खुशी मिलती। उन्होंने अपने अनेक साक्षात्कारों में यह स्वीकार किया है कि इन दोनों गायिका बहनों को सुनकर ही उनके मन में संगीत के प्रति प्रेम जागा। उन्हें संगीत की प्रेरणा इन्हीं से मिली। 
(iv) पक्का महाल की कुलसुम हलवाइन जब गर्म देसी घई में कचौड़ी तलती तो ‘छन्न’ से उठने वाली आवाज़ में उन्हें संगीत के सुरों के आरोह-अवरोह (उतार-चढ़ाव) सुनाई देते थे।
(v) उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ ने शहनाई वादन को अपनी संगीत साधना के समान समझा। वे खुदा से सच्चे सुर की माँग किया करते थे। पाँच समय की नमाज़ में और लाखों सजदों में वे उसी सुर को पाने की प्रार्थना करते जो लोगों के दिल को छू जाए। वे कला के लिए शहनाई बजाते थे। उन्होंने धन कमाने की इच्छा से कभी शहनाई वादन नहीं किया। जीवन के अंतिम समय तक वे अपने सुरों को निखारने के लिए रियाज़ करते रहे। 

Naubatkhane mein Ibadat Important Questions
नौबतखाने में इबादत - महत्तवपूर्ण प्रश्न

1. शहनाई के इतिहास के बारे में बताइए। 

उत्तर – वैदिक इतिहास अर्थात् भारत के प्राचीन समय में शहनाई का जिक्र नहीं मिलता। 16वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में तानसेन के द्वारा रचित बंदिश में इसका वर्णन मिलता है। अवधी भाषा के लोकगीतों और चैती में भी शहनाई का उल्लेख मिलता है। मंगलपूर्ण वातावरण बनाने में सहायक यह वाद्य हमेशा से मांगलिक कार्यक्रमों और अवसर पर बजाया जाता रहा है। जिस प्रकार दक्षिण भारत में मंगल वाद्य ‘नाग स्वरम्’ बजाया जाता है, उसी प्रकार शहनाई के बिना प्रभाती की मंगल ध्वनि अधूरी मानी जाती है।
2. काशी को संस्कृति की पाठशाला क्यों कहा जाता है?
अथवा
शास्त्रों में काशी, आनंदकानन नाम से प्रतिष्ठित है। इसके क्या कारण हैं?
उत्तर – काशी को संस्कृति की पाठशाला कहा जाता है। शास्त्रों में इसे आनंदकानन अर्थात् आनंद का वन नाम से प्रतिष्ठा मिली है क्योंकि यहाँ एक ही स्थल पर अनेक संस्कृतियाँ हैं। काशी में संगीत और साहित्य के साथ-साथ भक्ति की संस्कृति इस स्थल को पवित्र बनाती है। यहाँ विभिन्न जाति-धर्म के लोग सभी प्रकार के भेदभाव भुलाकर, काशी के सभी उत्सवों और अवसरों को साथ में मनाते हैं। काशी महान कलाकारों की कला से समृद्ध है। काशी की अलग तहज़ीब (संस्कृति) है, अपनी बोली है और अनेक कलाओं के विशिष्ट लोग हैं। यहाँ संगीत को भक्ति से, भक्ति को किसी भी धर्म के कलाकार से, कजरी को चैती से, विश्वनाथ (शिवजी) को विशालाक्षी (पार्वती जी) से, बिस्मिल्ला खाँ को गंगाद्वार से अलग करके नहीं देखा जा सकता।
3. काशी से बिस्मिल्ला खाँ का क्या संबंध है? 
उत्तर – काशी से बिस्मिल्ला खाँ का गहरा संबंध है। वे अक्सर कहते थे कि वे काशी छोड़कर कहीं नहीं जाना चाहते। उनका संबंध केवल काशी से ही नहीं बल्कि काशी में बहने वाली गंगा मइया, बाबा विश्वनाथ और बालाजी के मंदिर सभी से था। उनके खानदान की कई पुश्तों ने काशी में शहनाई बजाई। उनके नाना बालाजी मंदिर में बड़े प्रतिष्ठित शहनाई वादक रह चुके थे। जिस ज़मीन ने उन्हें तालीम (शिक्षा) दी, जहाँ से उन्होंने अदब (सम्मान) पाया, उस ज़मीन के लिए उनके हृदय में प्रेम और सम्मान था इसलिए वे उसे छोड़कर कहीं और नहीं जाना चाहते थे। वे शहनाई और काशी को जन्नत से बढ़कर मानते थे। 
4. ‘नौबतखाने में इबादत’ पाठ से आपको क्या प्रेरणा / शिक्षा / संदेश प्राप्त होता है? 
उत्तर – पाठ में विश्व प्रसिद्ध भारत रत्न से सम्मानित शहनाई वादक बिस्मिल्ला खाँ के जीवन से जुड़ी घटनाओं के माध्यम से लेखक ने उनके व्यक्तित्व की विशेषताओं का वर्णन किया है। इस पाठ से हमें सरलता और सादगी से भरा जीवन जीने और सभी धर्मों का आदर करने की शिक्षा मिलती है। एक कलाकार के लिए उसकी कला सर्वोपरि अर्थात् सबसे महत्त्वपूर्ण होती है, बिस्मिल्ला खाँ की अपनी कला के प्रति लगन और साधना से हमें यह प्रेरणा मिलती है। अपनी कला के दम पर प्रसिद्धि पाने पर भी अभिमान न करना और अपनी कला को निखारते रहने के लिए निरंतर (हर रोज़) अभ्यास करना एक कलाकार के लिए आवश्यक है। साथ ही उसे ऐसा हुनर प्रदान करने वाले ईश्वर का हमेशा आभारी रहना चाहिए।

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