Main Kyon Likhta hun

Main Kyon Likhta Hun – NCERT Class 10 Hindi Course A Kritika

Main Kyon Likhta Hun - NCERT Class 10 Hindi Course A Kritika

हमारे ब्लॉग में आपको NCERT पाठ्यक्रम के अंतर्गत कक्षा 10 (Course A) की हिंदी पुस्तक ‘क्षितिज’ और हिंदी पूरक पाठ्यपुस्तक ‘कृतिका’ के पाठ पर आधारित सामग्री प्राप्त होगी जो पाठ की विषय-वस्तु को समझने में आपकी सहायता करेगी। इसे समझने के उपरांत आप पाठ से संबंधित किसी भी प्रश्न का उत्तर सरलता से दे सकेंगे। 

NCERT Study Material for Class 10 Hindi Kritika Chapter 3 ‘Main Kyon Likhta Hun’ Important / key points which covers whole chapter / Quick revision notes, Textbook Question-Answers and Extra Questions /Important Questions with Answers 

यहाँ NCERT Class 10 Hindi के पाठ – 2 ‘मैं क्यों लिखता हूँ’ के मुख्य बिंदु (Important / Key points) दिए जा रहे हैं। साथ ही आपकी सहायता के लिए पाठ्यपुस्तक में दिए गए प्रश्नों के सटीक उत्तर (Textbook Question-Answers) एवं अतिरिक्त प्रश्नों के उत्तर (Extra Questions /Important Questions with Answers) सरल एवं भाषा में दिए गए हैं। आशा है यह सामग्री आपके लिए उपयोगी सिद्ध होगी। 

Table of Contents

Main Kyon Likhta Hun Introduction
मैं क्यों लिखता हूँ - पाठ परिचय

‘मैं क्यों लिखता हूँ’ पाठ हिंदी साहित्य के महान साहित्यकार सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ जी द्वारा लिखा गया एक निबंध है। 

प्रस्तुत निबंध में लेखक अपने लिखने के कारण अर्थात् ‘मैं क्यों लिखता हूँ’ – इस प्रश्न का उत्तर जानने का प्रयास करते हैं। वे कहते हैं कि इस प्रश्न का उत्तर बड़ा कठिन है बल्कि उसे वाक्यों में बाँधना संभव भी नहीं है क्योंकि यह प्रश्न लेखक के आंतरिक जीवन से संबंध रखता है। 

इस प्रश्न का उत्तर दूसरों के लिए उपयोगी हो सकता है, यही सोच कर लेखक लिखने के कारण के बारे में बताता है – 

पहला कारण (आंतरिक दबाव) – एक उत्तर तो यह है कि वह इसलिए लिखता है कि वह स्वयं जानना चाहता है कि वह क्यों लिखता है अर्थात् लेखक लिखने का कारण जानने के लिए लिखता है। अज्ञेय मानते हैं कि इस प्रश्न का कि ‘मैं क्यों लिखता हूँ’ सच्चा उत्तर यही है। लिखकर ही लेखक अपने भीतर की व्यवस्था को पहचान पाता है जिसके कारण उसने लिखा और लिखकर ही वह उससे मुक्त हो पाता है।

लेखक स्वयं भी अपनी आंतरिक (भीतर की) विवशता से मुक्ति पाने के लिए, उसे देखने और पहचानने के लिए लिखता है। 

लेखक का विश्वास है कि सभी कृतिकार इसलिए ही लिखते हैं। लेखक ने लेखक और कृतिका में अंतर स्पष्ट करते हुए लिखा है कि – ‘सभी लेखक कृतिका नहीं होते, न उनका सब लेखन ही कृति होता है।’ उनके कहने का अर्थ यह है कि जब लेखक अपने भीतर के दबाव अर्थात् सच्चे भावों को लिखता है और लिखकर ही चैन पाता है तब उसका लेखन कृति बन जाता है। ऐसा लेखक कृतिकार कहलाता है।

जब केवल धन और प्रसिद्धि प्राप्त करने के लिए कोई व्यक्ति कुछ लिखता है और आंतरिक भावों के अभाव में उसका लेखन उच्च कोटि (ऊँचे स्तर) का नहीं हो पाता। इसी कारण से वह लेखक कृतिकार नहीं बन पाता और न ही उसकी रचना कृति बन पाती है।

दूसरा कारण (बाहरी दबाव) – लेखक कहता है कि कुछ लेखक बाहर की विवशता से भी लिखते हैं। उदाहरण देते हुए लेखक बताता है कि थोड़ी प्रसिद्धि पाने के बाद कुछ लेखक संपादकों के आग्रह (विनती) पर, प्रकाशकों के कहने पर और आर्थिक आवश्यकता (धन आदि की ज़रूरत) के कारण भी लिखते हैं। 

लेखक लिखता है कि कृतिकार को यह पता होता है कि उसकी कौन – सी कृति भीतरी प्रेरणा का फल है और कौन – सा लेखन बाहरी दबाव का अर्थात् लेखक स्वयं जानता है कि उसकी कौन – सी रचना किस दबाव के कारण लिखी गई है। वैसे लेखक यह भी मानता है कि एक प्रकार से बाहर का दबाव भी, भीतर के प्रकाश (भावों) को बाहर प्रकट करने का कारण मात्र ही होता है। यहाँ कृतिकार के स्वभाव और आत्मानुशासन का बहुत महत्त्व होता है।

अज्ञेय जी ने ऐसे लेखकों को ‘आलसी जीव’ कहा है जो बिना बाहरी दबाव के लिख ही नहीं पाते। इसी बाहरी दबाव अर्थात् संपादकों और प्रकाशकों का आग्रह तथा आर्थिक ज़रूरतों को पूरा करने के विचार आदि के सहारे वे अपने भीतर की विवशता को काग़ज़ पर उतार पाते हैं। 

इस बात को भी लेखक ने एक उदाहरण के माध्यम से समझाने का प्रयास किया है। जैसे कई व्यक्ति नींद खुल जाने पर भी तब तक बिस्तर से नहीं उठाते जब तक घड़ी का अलार्म न बज जाए। ऐसे कृतिकार बाहरी दबाव के प्रति समर्पित नहीं होते बल्कि उसे एक सहायक यंत्र की तरह काम में लाते हैं।

कहने का अर्थ यह है कि वे केवल आर्थिक लाभ के लिए नहीं लिखते, स्वयं की संतुष्टि के लिए लिखते हैं। परंतु आर्थिक लाभ मिलने के फल को वे केवल अपने मन के विचारों को प्रकट कर पाने में सहायक मानते हैं जिससे भौतिक यथार्थ के साथ उनका संबंध बना रहे अर्थात् जीवन की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए वे सजग रहें। 

इस संबंध में लेखक अपने बारे में बताता है कि उसे इस सहारे की जरूरत नहीं पड़ती लेकिन कभी उससे बाधा भी नहीं होती। अपने दिए गए उदाहरण को ही इस बात से जोड़ते हुए वह कहता है कि सवेरे अपने आप उठ जाता हूँ पर अलार्म भी बच जाए तो कोई हानि नहीं मानता। कहने का अर्थ यह है कि लेखक अपने भीतर की विवशता (अपने मन की व्याकुलता) से मुक्ति पाने के लिए लिखता है लेकिन इस लेखन से उसे अगर धन लाभ होता है तो उसे कोई परेशानी भी नहीं। 

भीतर की विवशता क्या है? 

लेखक ने बाहरी विवशता को तो स्पष्ट किया है लेकिन वह कहता है कि भीतर की विवशता को स्पष्ट करना बहुत कठिन है। इसे समझाने के लिए लेखक अपनी कविता ‘हिरोशिमा’ को लिखने की प्रक्रिया का ज़िक्र करता है।

अपने निबंध (पाठ) – मैं क्यों लिखता हूँ, में लेखक ने लिखा है कि विज्ञान का विद्यार्थी होने के कारण उसे अणु, रेडियो – धर्मी तत्वों और रेडियम धर्मिता के प्रभावों आदि का पुस्तकीय ज्ञान था। फिर जब हिरोशिमा में अणु-बम गिरा, तब उसके परवर्ती (बाद के) प्रभावों के बारे में भी वह समाचार पत्रों में पढ़ता रहा। इस प्रकार उसने अणु-बम के प्रभावों का ऐतिहासिक प्रमाण भी देखा। 

विज्ञान के इस दुरुपयोग के प्रति उसकी बुद्धि ने विद्रोह भी किया अर्थात् लेखक की बुद्धि के अनुसार अणु-बमों का इस प्रकार इस्तेमाल विज्ञान का दुरुपयोग है। 

लेखक ने बताया कि इस विषय पर उन्होंने कुछ लेख भी लिखे परंतु काफ़ी समय तक कोई कविता नहीं लिखी। लेखक का मानना है कि कविता लिखने के लिए अनुभूति का होना आवश्यक है। इस संबंध में लेखक को अनुभूति नहीं हो पाई इसलिए अपने बौद्धिक ज्ञान के आधार पर लेखक ने केवल लेख ही लिखे। 

वैसे वह एक हद तक अणु-बम द्वारा व्यर्थ जीव – नाश का अनुभव कर चुका था। जब युद्ध काल में भारत की पूर्वी सीमा पर सैनिकों ने अपनी भूख मिटाने के लिए ब्रह्मपुत्र नदी में बम फेंक कर हजारों मछलियों को मार दिया था जबकि उन्हें थोड़ी सी मछलियों की ही आवश्यकता थी। तब लेखक को जीवों के इस प्रकार व्यर्थ मारे जाने के कारण दुख का अनुभव हुआ था। अणु-बम द्वारा व्यर्थ में जीवों के नाश का अनुभव लेखक ने अवश्य किया लेकिन उसे गहरी अनुभूति अभी भी नहीं हुई थी।

लेखक को जब जापान जाने का अवसर मिला तब वह हिरोशिमा भी गया। उसने वह अस्पताल भी देखा जहाँ रेडियम पदार्थ से घायल लोग वर्षों से कष्ट पा रहे थे। इस प्रकार इस महाविनाश के परिणामों का उसने प्रत्यक्ष (अपनी आंँखों से) अनुभव भी किया। लेकिन लेखक एक कृतिकार के लिए अनुभव से ज़्यादा अनुभूति की गहराई को अधिक आवश्यक मानता है।l

 लेखक के शब्दों में – ‘अनुभव तो घटित का होता है, पर अनुभूति संवेदना और कल्पना के सहारे उस सत्य को आत्मसात कर लेती है जो वास्तव में कृतिकार के साथ घटित नहीं हुआ है। जो आंँखों के सामने नहीं आया, जो घटित के अनुभव में नहीं आया, वही आत्मा के सामने ज्वलंत प्रकाश में आ जाता है, तब वह अनुभूति प्रत्यक्ष हो जाता है’ इसका अर्थ है कि लेखक कृतिकार के लिए अनुभूति को अधिक आवश्यक मानता है।

 वह कहता है कि अनुभव तो उस घटना का होता है जिसका हिस्सा कृतिकार स्वयं होता है। जो उसने अपनी आँखों से देखा वह अनुभव है परंतु जो उसने बिना देखे, बिना स्वयं अनुभव किए अनुभूति के स्तर पर महसूस किया, अपनी संवेदना और कल्पना के सहारे उस सच्चाई को बिना अनुभव के भोगा, वही अनुभूति – प्रत्यक्ष हो जाता है। वह दुख, वह पीड़ा उसके अंदर भी उत्पन्न हो जाती है जो वास्तव में भोक्ता होने के कारण उस पीड़ा को अनुभव करता है।

हिरोशिमा में घायल लोगों को देखकर भी लेखक ने वह पीड़ा उस स्तर पर महसूस नहीं की क्योंकि इसी अनुभूति – प्रत्यक्ष की अभी कमी थी जो एक कृतिकार के भीतर (मन में) बेचैनी उत्पन्न करती है। जब कृतिकार अपनी संवेदना के आधार पर उस दुख से जुड़ जाता है तब वह अपनी अनुभूति के सहारे उसे कागज़ पर उतारने के लिए मजबूर हो जाता है। 

इस बात को स्पष्ट करने के लिए लेखक एक घटना का वर्णन करता है – 

हिरोशिमा घूमने के दौरान, अणु बमों के दुष्प्रभावों को देखकर भी लेखक उस अनुभूति से दूर ही था जो उस घटना के लोगों ने भोगी थी। फिर एक दिन वहीं सड़क पर घूमते हुए उसने एक जले हुए पत्थर पर एक लंबी उजली छाया को देखा। तब विज्ञान विषय की जानकारी रखने वाले लेखक ने अनुमान लगाया कि विस्फोट के समय कोई व्यक्ति वहाँ, उस पत्थर के आगे खड़ा होगा और विस्फोट से चारों ओर बिखरने वाली रेडियम – धर्मी पदार्थ की किरणें उस व्यक्ति में फँस गई होंगी। 

वे किरणें उसके आसपास से आगे बढ़ गई होंगी जिससे पत्थर झुलस गया होगा। जो किरणें उस व्यक्ति पर अटकीं होंगी उन्होंने उस आदमी को भाप बनाकर उड़ा दिया होगा और उसकी छाप पत्थर पर उसकी आकृति के रूप में छप गई होगी। इस प्रकार लेखक को सारी ट्रेजेडी पत्थर पर लिखी हुई – सी प्रतीत हुई। 

 पत्थर पर मानव की छाया को देखकर लेखक को जैसे गहरा धक्का लगा। लेखक कहता है कि उस क्षण में वह अणु – विस्फोट उसके अनुभूति – प्रत्यक्ष में आ गया। एक अर्थ में वह स्वयं हिरोशिमा के विस्फोट का भोक्ता बन गया। इसी संवेदना और अनुभूति से उसके अंदर विवशता जागी। उसी भीतरी विवशता से मुक्त होने के लिए लेखक ने भारत लौटकर रेलगाड़ी में बैठे हुए हिरोशिमा पर कविता लिखी।

पाठ के अंत में लेखक दिखता है कि ‘यह कविता अच्छी है या बुरी, इससे मुझे मतलब नहीं है। मेरे निकट वह सच है क्योंकि वह अनुभूति – प्रसूत (उत्पन्न) है, यही मेरे निकट महत्त्व की बात है। 

अतः पाठ के अंत तक आते-आते पाठक को इस प्रश्न का उत्तर मिल जाता है कि तीव्र अनुभूति के कारण अपने मन में उत्पन्न भावों और विचारों को प्रकट करने के लिए, अपनी आंतरिक विवशता अर्थात् भीतर की व्याकुलता से मुक्ति पाने के लिए लेखक लिखता है।

Main Kyon Likhta Hun Question Answer
मैं क्यों लिखता हूँ - प्रश्न उत्तर

 

1. लेखक के अनुसार प्रत्यक्ष अनुभव की अपेक्षा अनुभूति उनके लेखन में कहीं अधिक मदद करती है, क्यों?

उत्तर – लेखक के अनुसार प्रत्यक्ष अनुभव की अपेक्षा अनुभूति उनके लेखन में कहीं अधिक मदद करती है। अनुभूति उन्हें अधिक संवेदनशील बनाती है। तीव्र अनुभूति के कारण अपने मन में उत्पन्न भावों और विचारों को प्रकट करने के लिए और भीतर की व्याकुलता से मुक्ति पाने के लिए लेखक लिखता है। उसमें लिखने की विवशता जागती है। यही आंतरिक विवशता भावपूर्ण रचनाएँ लिखने में लेखक के लेखन में सहायक बनती है। 

2. लेखक ने अपने आपको हिरोशिमा के विस्फोट का भोक्ता कब और किस तरह महसूस किया?

उत्तर – हिरोशिमा घूमने के दौरान, अणु बमों के दुष्प्रभावों को देखकर भी लेखक उस अनुभूति से दूर ही था जो उस घटना के लोगों ने भोगी थी। फिर एक दिन वहीं सड़क पर घूमते हुए उसने एक जले हुए पत्थर पर एक लंबी उजली छाया को देखा। तब विज्ञान विषय की जानकारी रखने वाले लेखक ने अनुमान लगाया कि विस्फोट के समय कोई व्यक्ति वहाँ, उस पत्थर के आगे खड़ा होगा और विस्फोट से चारों ओर बिखरने वाली रेडियम – धर्मी पदार्थ की किरणें उस व्यक्ति में फँस गई होंगी। 

वे किरणें उसके आसपास से आगे बढ़ गई होंगी जिससे पत्थर झुलस गया होगा। जो किरणें उस व्यक्ति पर अटकीं होंगी उन्होंने उस आदमी को भाप बनाकर उड़ा दिया होगा और उसकी छाप पत्थर पर उसकी आकृति के रूप में छप गई होगी। पत्थर पर मानव की छाया को देखकर लेखक को गहरा धक्का लगा। उसी क्षण में वह अणु – विस्फोट उसके अनुभूति – प्रत्यक्ष में आ गया और वह स्वयं हिरोशिमा के विस्फोट का भोक्ता बन गया।

3. ‘मैं क्यों लिखता हूँ’ के आधार पर बताइए कि :-

(क) लेखक को कौन-सी बातें लिखने के लिए प्रेरित करती हैं?

उत्तर – लेखक लिखने का कारण जानने के लिए लिखता है। लिखकर ही वह अपने भीतर की विवशता को पहचान पाता है जिसके कारण वह लिखने के लिए प्रेरित होता है अर्थात् वह अपनी आंतरिक विवशता से प्रेरित होकर लिखता है। अपनी विवशता को देखने, समझने और उसे प्रकट करने की बेचैनी से मुक्त होने के लिए लेखक लिखता है।

स्वयं अनुभव की हुई घटनाएँ हों या केवल देखी, सुनी और पढ़ी घटनाएँ, लेखक जब तक अपनी संवेदना और कल्पना के सहारे अपने भीतर गहरी अनुभूति महसूस नहीं करता तब तक वह कविता नहीं लिख पाता।  

कभी-कभी वह संपादकों के आग्रह से, प्रकाशक के तकाजों से तथा आर्थिक लाभ के लिए भी लिखता है। परंतु दूसरा कारण उसके लिए जरूरी नहीं है। पहला कारण अर्थात् मन की व्याकुलता ही उसके लेखन का मूल कारण बनती है।

(ख) किसी रचनाकार के प्रेरणा-स्रोत किसी दूसरे को कुछ भी रचने के लिए किस तरह उत्साहित कर सकते हैं? 

उत्तर- लेखक का प्रेरणा स्रोत आंतरिक भी हो सकता है और बाह्य भी। लेखक जो कुछ भी लिखता है वह कहीं-न-कहीं उसके जीवन से जुड़ा होता है। कभी – कभी एक लेखक की रचना दूसरों के लिए भी प्रेरणा-स्रोत बन जाती है। ऐसा तब होता है जब उस रचना को लोगों द्वारा पसंद किया जाता है, उसे प्रसि‌द्धि मिलने पर धन प्राप्त होता है तथा समाज में सम्मान मिलने पर वह रचना और उसके पात्र दूसरों के लिए प्रेरणादायी बन जाते हैं। 

उदाहरण के लिए संस्कृत कवि वाल्मीकि द्वारा रामायण की रचना की गई। उनकी रामकथा को लोगों द्वारा पसंद किया गया। ऊँचे आदर्शों से पूर्ण होने के कारण उन्हें और उनकी रचना को सम्मान मिला। वाल्मीकि जी की रामकथा ने अन्य भाषा के कवियों को उसी प्रसिद्ध कथा को अन्य भाषाओं में लिखने के लिए प्रेरित किया। 

4. कुछ रचनाकारों के लिए आत्मानुभूति/स्वयं के अनुभव के साथ-साथ बाह्य दबाव भी महत्त्वपूर्ण होता है। ये बाह्य दबाव कौन-कौन से हो सकते हैं?

उत्तर – कुछ रचनाकारों के लिए आत्मानुभूति/स्वयं के अनुभव के साथ-साथ बाह्य दबाव भी महत्त्वपूर्ण होता है। ये बाह्य दबाव अनेक प्रकार के होते हैं – 

(i) कभी प्रसिद्धि मिल जाने पर उसे बनाए रखने की विवशता के कारण लेखक कुछ और भी लिखने का प्रयास करता है।

(ii) पत्र-पत्रिकाओं के संपादकों द्वारा किसी विषय अथवा घटना पर लिखने का आग्रह होता है जो वर्तमान समय में खूब चर्चा में हो। 

(iii) कभी लेखक को पुस्तकों के प्रकाशकों के आग्रह (विनती) पर लिखना पड़ता है। 

(iv) कभी लेखक स्वयं अपनी आर्थिक आवश्यकता की पूर्ति के लिए लिखता है।

5. क्या बाह्य दबाव केवल लेखन से जुड़े रचनाकारों को ही प्रभावित करते हैं या अन्य क्षेत्रों से जुड़े कलाकारों को भी प्रभावित करते हैं?

उत्तर – बाह्य दबाव लेखन से जुड़े रचनाकारों तक ही सीमित न होकर कला के अन्य क्षेत्रों से जुड़े लोगों को भी प्रभावित करते हैं, जैसे – सिनेमा से जुड़े गीतकार, संगीतकार, संवाद लेखक, गायक और निर्देशक इससे प्रभावित होते हैं। मूर्तिकार, चित्रकार, नृत्य से जुड़े कलाकार, रंगमंच के कलाकार और उससे जुड़े लोग इस बाह्य दबाव से प्रभावित होकर व्यवसायिक बनने लगते हैं।

इस प्रकार विभिन्न कलाओं से जुड़े लोग अपनी मौलिकता से हटकर व्यवसायिक माँगों के अनुसार काम करने लगते हैं। अपनी आर्थिक आवश्कताओं को पूरा करने के लिए और समाज में अपना स्थान बनाए रखने के लिए इन्हें ऐसा करना पड़ता है। 

6. हिरोशिमा पर लिखी कविता लेखक के अंतः व बाह्य दोनों दबावों का परिणाम है। यह आप कैसे कह सकते हैं?

उत्तर – मेरे विचार में हिरोशिमा पर लिखी कविता लेखक के अंतः अर्थात् भीतरी दबाव का ही परिणाम है। विज्ञान का छात्र होने के कारण लेखक रेडियोधर्मी पदार्थों की भयानकता को समझता था। अणु-बम द्वारा व्यर्थ में जीवों के नाश का से लेखक का मन दुखी अवश्य हुआ था लेकिन उसे गहरी अनुभूति अभी भी नहीं हुई थी। 

हिरोशिमा के अस्पताल में वर्षों बाद भी विस्फोट से प्रभावित लोगों के कष्टों को देखकर भी वह बहुत दुखी हो गया। लेकिन एक दिन सड़क पर एक पत्थर पर विस्फोट के प्रभाव से मानव आकृति की बनी उजली छाया को देखकर वह इतना प्रभावित हुआ कि क्षण भर में ही वर्षों पहले हुए हिरोशिमा के विस्फोट का वह स्वयं भोक्ता बन गया। 

इसी संवेदना और अनुभूति से उसके अंदर विवशता जागी। उसी भीतरी विवशता से मुक्त होने के लिए लेखक ने भारत लौटने पर ‘हिरोशिमा’ नामक कविता लिखी और अपनी विवशता से मुक्ति पाई। 

संभव है कि भारत लौटने पर किसी पत्रिका के संपादक के आग्रह पर उन्होंने यह कविता लिखी हो जिससे यह कविता भीतरी दबाव के साथ – साथ बाहरी दबाव का परिणाम रही हो।

7. हिरोशिमा की घटना विज्ञान का भयानकतम दुरुपयोग है। आपकी दृष्टि में विज्ञान का दुरुपयोग कहाँ-कहाँ और किस तरह से हो रहा है? 

उत्तर – विज्ञान का दुरुपयोग अनेक क्षेत्रों में कई तरह से हो रहा है। इससे पर्यावरण, समाज और मानवता को नुकसान पहुँच रहा है। 

1. परमाणु बम और हथियार – परमाणु बमों का निर्माण और हथियारों के प्रयोग से न केवल निर्दोष लोगों मारे जाते हैं बल्कि इससे पर्यावरण को भी नुकसान पहुँचता है। साथ ही लोग मानसिक रूप से असुरक्षित महसूस करते हैं। 

2. कीटनाशकों का प्रयोग – कृषि के क्षेत्र में अच्छी फ़सल प्राप्त करने के लिए कीटनाशक दवाइयों का प्रयोग किया जाता है जिससे भूमि के पोषक तत्व नष्ट हो जाते हैं और ऐसी फल – सब्ज़ियाँ भी लोगों के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हैं। 

3. सूचना का दुरुपयोग – आज के डिजिटल युग में, साइबर अपराध बढ़ गया है। मनोरंजन के साधन बढ़ गए हैं। इंटरनेट पर उपलब्ध अनैतिक सामग्री द्वारा बच्चों और युवाओं की मानसिकता खराब हो रही है। 

4. कारखानों का प्रदूषण – विज्ञान और तकनीकी विकास ने औद्योगिकीकरण को बढ़ावा दिया है, लेकिन इसके साथ ही, प्रदूषण की समस्या बढ़ गई है। प्रदूषित जल, वायु और धरती मनुष्य के स्वास्थ्य को गंभीर रूप से प्रभावित कर रहे हैं।

8. एक संवेदनशील युवा नागरिक की हैसियत से विज्ञान के दुरुपयोग को रोकने में आपकी क्या भूमिका है? 

उत्तर- एक संवेदनशील नागरिक होने की हैसियत से हम विज्ञान के दुरुपयोग को रोकने के लिए हर संभव प्रयास करेंगे – 

(i) हानिकारक वैज्ञानिक उपकरणों के प्रयोग को रोकने के लिए रैलियाँ निकालेंगे। 

(ii) स्कूल – कॉलेज में विज्ञान के दुरुपयोग से संबंधित कार्यक्रम आयोजित करेंगे जैसे – निबंध लेखन प्रतियोगिता, वाद – विवाद प्रतियोगिता, नुक्कड़ नाटक आदि, जिससे बच्चों और युवाओं में जागरूकता फैले। 

(iii) किसानों को रासायनिक खाद के स्थान पर जैविक एवं कम्पोस्ट खाद के प्रयोग के लिए प्रेरित करेंगे। 

(iv) लोगों को पेड़ लगाने के लाभों के प्रति जागरूक करेंगे और अपने आस – पास का वातावरण साफ़ रखने का प्रयास करेंगे। 

Main Kyon Likhta Hun Important Questions
मैं क्यों लिखता हूँ - अतिरिक्त प्रश्न

 

1. पाठ ‘मैं क्यों लिखता हूँ’ के आधार पर बताइए कि एक लेखक और कृतिकार में क्या अंतर है? 

अथवा

‘सभी लेखक कृतिकार नहीं होते।’ पाठ – ‘मैं क्यों लिखता हूँ’ के लेखक ने ऐसा क्यों कहा है? 

उत्तर – पाठ ‘मैं क्यों लिखता हूँ’ के लेखक ‘अज्ञेय’ ने लेखक और कृतिका में अंतर बताया है। लेखक के अनुसार ‘सभी लेखक कृतिका नहीं होते, न उनका सब लेखन ही कृति होता है।’ उनके कहने का अर्थ यह है कि जब लेखक अपने भीतर के दबाव अर्थात् सच्चे भावों को लिखता है और लिखकर ही चैन पाता है तब उसका लेखन कृति बन जाता है। ऐसा लेखक कृतिकार कहलाता है। 

जब केवल धन और प्रसिद्धि प्राप्त करने के लिए कोई व्यक्ति कुछ लिखता है और आंतरिक भावों के अभाव में उसका लेखन उच्च कोटि (ऊँचे स्तर) का नहीं हो पाता। इसी कारण से वह लेखक कृतिकार नहीं बन पाता और न ही उसकी रचना कृति बन पाती है।

2. उस घटना का वर्णन कीजिए जब लेखक हिरोशिमा विस्फोट का भोक्ता बन गया। पाठ – ‘मैं क्यों लिखता हूँ’ के आधार पर बताइए। 

अथवा

हिरोशिमा विस्फोट के संदर्भ में लेखक को प्रत्यक्ष अनुभूति कब हुई? उसका क्या परिणाम हुआ? 

उत्तर – हिरोशिमा घूमने के दौरान, अणु बमों के दुष्प्रभावों को देखकर भी लेखक उस अनुभूति से दूर ही था जो उस घटना के लोगों ने भोगी थी। फिर एक दिन वहीं सड़क पर घूमते हुए उसने एक जले हुए पत्थर पर एक लंबी उजली छाया को देखा। तब विज्ञान विषय की जानकारी रखने वाले लेखक ने अनुमान लगाया कि विस्फोट के समय कोई व्यक्ति वहाँ, उस पत्थर के आगे खड़ा होगा और विस्फोट से चारों ओर बिखरने वाली रेडियम – धर्मी पदार्थ की किरणें उस व्यक्ति में फँस गई होंगी। 

वे किरणें उसके आसपास से आगे बढ़ गई होंगी जिससे पत्थर झुलस गया होगा। जो किरणें उस व्यक्ति पर अटकीं होंगी उन्होंने उस आदमी को भाप बनाकर उड़ा दिया होगा और उसकी छाप पत्थर पर उसकी आकृति के रूप में छप गई होगी। इस प्रकार लेखक को सारी ट्रेजेडी पत्थर पर लिखी हुई – सी प्रतीत हुई। 

 पत्थर पर मानव की छाया को देखकर लेखक को जैसे गहरा धक्का लगा। लेखक कहता है कि उस क्षण में वह अणु – विस्फोट उसके अनुभूति – प्रत्यक्ष में आ गया। एक अर्थ में वह स्वयं हिरोशिमा के विस्फोट का भोक्ता बन गया। इस अनुभूति का परिणाम यह हुआ कि लेखक संवेदना के स्तर पर उस घटना से जुड़ा और उसने ‘हिरोशिमा’ कविता की रचना की। 

3. अणु – बम द्वारा जीवों के व्यर्थ मारे जाने का दुख लेखक को पहली बार कब हुआ था? पाठ – ‘मैं क्यों लिखता हूँ’ के आधार पर बताइए। 

उत्तर – लेखक अणु-बम द्वारा व्यर्थ जीव – नाश का अनुभव हिरोशिमा विस्फोट से पहले भी कर चुका था। जब युद्ध काल में भारत की पूर्वी सीमा पर सैनिकों ने अपनी भूख मिटाने के लिए ब्रह्मपुत्र नदी में बम फेंक कर हजारों मछलियों को मार दिया था जबकि उन्हें थोड़ी सी मछलियों की ही आवश्यकता थी। तब लेखक को जीवों के इस प्रकार व्यर्थ मारे जाने के कारण दुख का अनुभव हुआ था। 

अणु-बम द्वारा व्यर्थ में जीवों के नाश का अनुभव लेखक ने अवश्य किया लेकिन उसे गहरी अनुभूति अभी भी नहीं हुई थी।

4. प्रत्यक्ष अनुभव और अनुभूति में क्या अंतर है? पाठ – ‘मैं क्यों लिखता हूँ’ के आधार पर बताइए। 

उत्तर- लेखक ने प्रत्यक्ष अनुभव और अनुभूति में अंतर स्पष्ट करते हुए बताया है कि सामने घटी घटना को देखना, प्रत्यक्ष अनुभव होता है। जब कोई व्यक्ति घटना को स्वयं भोगता है तब वह उसका प्रत्यक्ष अनुभव करता है। परंतु वह घटना देखने वाले अर्थात् अनुभव करने वाले के मन में गहरी अनुभूति जगाए यह जरूरी नहीं है। 

स्वयं अनुभव की हुई घटनाएँ हों या केवल देखी, सुनी और पढ़ी घटनाएँ, व्यक्ति जब अपनी संवेदना और कल्पना के सहारे उससे खुद को जुड़ा हुआ महसूस करता है तब इसका कारण उसकी अपने मन की गहरी अनुभूति होती है। 

कविता - हिरोशिमा

सन् 1959 में प्रकाशित ‘अरी ओ करुणा प्रभामय’ काव्य – संग्रह में संकलित अज्ञेय जी की ‘हिरोशिमा’ 

कविता यहाँ दी जा रही है – 

हिरोशिमा

एक दिन सहसा 

सूरज निकला 

अरे क्षितिज पर नहीं, 

नगर के चौक : 

धूप बरसी 

पर आंतरिक्ष से नहीं, 

फटी मिट्टी से। 

छायाएँ मानव-जन की 

दिशाहीन 

सब ओर पड़ीं वह सूरज 

नहीं उगा था पूरब में, वह 

बरसा सहसा

बीचों-बीच नगर के : 

काल-सूर्य के रथ के 

पहियों के यों अरे टूट कर 

बिखर गाए हों 

दसों दिशा में।

कुछ क्षण का वह उदय-अस्त 

केवल एक प्रज्वलित क्षण की 

दृश्य सोख लेने वाली दोपहरी।

फिर 

छायाएँ मानव-जन को 

नहीं मिटीं लंबी हो-हो कर : 

मानव हो सब भाप हो गए। 

छायाएँ तो अभी लिखी हैं 

झुलसे हुए पत्थरों पर 

उजड़ी सड़‌कों की गच पर।

मानव का रचा हुआ सूरज 

मानव को भाप बनाकर सोख गया। 

पत्थर पर लिखी हुई यह

जली हुई छाया

मानव की साखी है। 

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