raskhan ke savaiye

Raskhan ke Savaiye – NCERT Class 9 Hindi Course A Kshitij

NCERT Study Material for Class 9 Hindi Kshitij Chapter - 11 'Raskhan ke Savaiye'

NCERT Study Material for Class 9 Hindi Kshitij Chapter – 11 ‘Raskhan ke Savaiye’ (Explanation)

हमारे ब्लॉग में आपको NCERT पाठ्यक्रम के अंतर्गत कक्षा 9 (Course A) की हिंदी पुस्तक ‘क्षितिज’ के पाठ पर आधारित प्रश्नों के सटीक उत्तर स्पष्ट एवं सरल भाषा में प्राप्त होंगे। साथ ही काव्य – खंड के अंतर्गत निहित कविताओं एवं साखियों आदि की विस्तृत व्याख्या भी दी गई है।

यहाँ NCERT HINDI Class 9 के पाठ – 11 ‘रसखान के सवैया’ की व्याख्या दी जा रही है। यह व्याख्या पाठ की विषय-वस्तु को समझने में आपकी सहायता करेगी। इसे समझने के उपरांत आप पाठ से संबंधित किसी भी प्रश्न का उत्तर सरलता से दे सकेंगे। आशा है यह सामग्री आपके लिए उपयोगी सिद्ध होगी।

NCERT HINDI Class 9 के पाठ – 11 ‘रसखान के सवैया’ की सप्रसंग व्याख्या –

Table of Contents

Raskhan ke Savaiye Explanation
रसखान के सवैया - सहायक सामग्री

(1) 

मानुष हौं तो वही रसखानि बसौं ब्रज गोकुल गाँव के ग्वारन ।

जौ पसु हौं तो कहा बस मेरो चरौं नित नंद की धेनु मँझारन ।।

पाहन हौं तो वही गिरि को जो कियो हरिछत्र पुरंदर धारन। 

जौ खग हौं तो बसेरो करौँ मिलि कालिंदी कूल कदंब की डारन।। 

शब्दार्थ  

  •  मानुष – मनुष्य 

  •  बसौं – बसना, रहना 

  •  ग्वारन – ग्वाल

  •  पसु – पशु

  •  कहा बस- वश में न रहना 

  •  चरों-चरता रहूँ

  •  नित-हमेशा 

  •  धेनु – गाय 

  •  मँझारन – बीच में

  •  पाहन – पत्थर 

  •  गिरि-पर्वत 

  •  छत्र- छाता 

  •  पुरंदर – इंद्र 

  •  धारन – धारण किया

  •  खग – पक्षी

  •  बसेरो – निवास करना 

  •  कालिंदी – यमुना 

  •  कूल – किनारा 

  •  कदंब – एक वृक्ष 

  •  डारन – शाखाएँ, डाल

प्रसंग – 

प्रस्तुत सवैया कृष्णभक्त कवि रसखान द्वारा रचित है। इस सवैये में कृष्ण और कृष्ण भूमि के प्रति रसखान का अनन्य समर्पण भाव व्यक्त हुआ है। 

व्याख्या – 

इन पंक्तियों में रसखान अपने आराध्य श्री कृष्ण और ब्रजभूमि के प्रति अपना प्रेम प्रकट करते हुए कहते हैं कि यदि अगले जन्म में मैं मनुष्य बनूँ तो मेरी यही इच्छा है कि मुझे गोकुल गाँव के ग्वालों के बीच रहने का अवसर मिले।

यदि मुझे पशु के रूप में जन्म मिले तो मेरा कोई वश तो नहीं होगा परंतु फिर भी मैं हर दिन नंद बाबा की गायों के बीच रहकर चरना चाहता हूँ।यदि मैं पत्थर बनूँ तो उसी गोवर्धन पर्वत का पत्थर बनूँ, जिसे श्री कृष्ण ने छाते की तरह अपनी कनिष्ठा (सबसे छोटी उंगली) पर उठाकर ब्रजभूमि को इंद्र के क्रोध से बचाया था। यदि पक्षी बनूँ तो यमुना नदी के तट पर कदंब के पेड़ की डाल पर घोंसला बनाकर रहूँ। 

भाव यह है कि रसखान ब्रजभूमि और श्री कृष्ण से जुड़ी हर वस्तु से प्रेम करते हैं और वह कोई भी जन्म लेकर किसी भी रूप में श्री कृष्ण का साथ चाहते हैं।

(2) 

या लकुटी अरु कामरिया पर राज तिहूँ पुर को तजि डारौँ । 

आठहुँ सिद्धि नवौ निधि के सुख नंद की गाई चराइ बिसारौं ॥ 

रसखान कब इन आँखिन सौं, ब्रज के बन बाग तड़ाग निहारौं। 

कोटिक ए कलधौत के धाम करील के कुंजन ऊपर वारौं ॥

शब्दार्थ-

  •  या – इस 

  •  लकुटी-लाठी 

  •  कामरिया – छोटा कंबल 

  •  तिहूँ – तीनो

  •  पुर – लोक 

  •  तजि डारौं – त्याग दूँ

  •  नवौ निधि – नौ निधियाँ 

  •  बिसारौं- भूलूँ 

  •  तड़ाग – तालाब 

  •  निहारौं – देखता हूँ

  •  कोटिक – करोड़ों 

  • कलधौत के धाम – सोने-चाँदी के महल

  •  करील – काँटेदार झाड़ियाँ

  •  कुंजन – लताओं से भरा स्थान 

  •  वारौं – न्योछावर करना 

प्रसंग –

रसखान श्री कृष्ण के अनन्य भक्त हैं । श्रीकृष्ण के प्रति अपने प्रेम के कारण वह श्री कृष्ण से जुड़ी प्रत्येक वस्तु को अनमोल मानते हैं और उनके लिए वह बड़ी से बड़ी संपत्ति न्योछावर करने को तैयार हैं। 

व्याख्या – 

श्री कृष्ण के प्रेम में डूबे हुए रसखान कहते हैं कि जिस लाठी और कंबल को लेकर कृष्ण गाय चराने के लिए वन जाते थे उसे पाने के लिए मैं तीनों लोगों का सुख त्यागने के लिए भी तैयार हूँ। मैं नंद की गाय चराने के सुख के बदले आठों सिद्धियों और नौ निधियों के सुख को भी भूल सकता हूँ अर्थात् नंद की गाय चराने के सुख के आगे रसखान संसार की सभी शक्तियों और सभी प्रकार की संपत्ति (धन और वैभव) को तुच्छ समझते हैं।

रसखान कहते हैं कि कब मैं अपनी आंँखों से ब्रज के वनों, बागों और तालाबों को निहार (देख) सकूँगा। भाव यह है कि वह ब्रज भूमि के उन सभी स्थानों को देखते हुए अपना जीवन बिताना चाहते हैं जहाँ-जहाँ श्री कृष्ण ने अपने चरण रखे होंगे।

रसखान कहते हैं कि मैं सोने-चाँदी के करोड़ों महलों को ब्रजभूमि की काँटेदार झाड़ियों पर न्योछावर करने को तैयार हूँ अर्थात् रसखान को महलों के सुख की इच्छा नहीं है वह तो केवल ब्रज भूमि में रहकर कृष्ण के साथ का अनुभव प्राप्त करने को ही अपने जीवन का सबसे बड़ा सुख मानते हैं जो सच्चा सुख उन्हें ब्रजभूमि की काँटेदार झाड़ियों से भरे वनों में मिलता है, जहाँ पर प्रभु श्री कृष्ण ने कभी अपना समय बिताया था वैसा सुख और आनंद उन्हें और कहीं नहीं मिलता। 

(3) 

मोरपखा सिर ऊपर राखिहौं, गुंज की माल गरेँ पहिरौंगी। 

ओढ़ि पितंबर लै लकुटी बन गोधन ग्वारनि संग फिरौंगी ॥ 

भावतो वोहि मेरी रसखानि सों तेरे कहे सब स्वाँग करौंगी। 

या मुरली मुरलीधर की अधरान धरी अधरा न धरौंगी ॥

शब्दार्थ – 

  •  मोरपखा – मोर के पंखों से बना मुकुट 

  •  राखिहौं-रखूँगी

  • गुंज-एक जंगली पौधे का छोटा-सा फल 

  •  गरें- गले में

  •  पहिरौंगी – पहनूँगी

  •  पितंबर (पीतांबर)-पीलावस्त्र 

  • गोधन – गाय रूपी धन 

  • ग्वारिन – ग्वालों के 

  • फिरौंगी – फिरूँगी (घूमूँगी) 

  •  भावतो – अच्छा लगना 

  •  वोहि – जो कुछ

  •  स्वाँग – रूप धारण करना

  • करौंगी – करूँगी 

  •  मुरलीधर – कृष्ण 

  •  अधरा – होंठों पर

  •  धरौंगी – रखूँगी

प्रसंग- 

प्रस्तुत छंद में रसखान जी ने दो गोपियों की आपस की बातचीत का चित्र अंकित किया है जो कृष्ण के रूप सौंदर्य पर मोहित होकर (रीझ कर) स्वयं ही कृष्ण का रूप धारण कर लेना चाहती हैं। 

व्याख्या- 

एक गोपी दूसरी गोपी से कहती है कि मैं कृष्ण की तरह मोर पंख से बना मुकुट अपने सिर पर पहन लूँगी, अपने गले में गुंज की माला पहनूँगी। पीले वस्त्र धारण कर हाथ में लाठी लेकर ग्वालों के साथ वन में गाय चराने जाऊँगी। हे सखी तेरे कहने पर मैं वैसा रूप धारण करूँगी जैसा रूप मेरे कृष्ण को प्रिय है और वह स्वयं वैसा रूप धारण करते हैं। परंतु कृष्ण की यह मुरली मैं अपने होठों पर कभी नहीं रखूँगी।

गोपी कृष्ण की मुरली को अपने होठों से नहीं लगाना चाहती है क्योंकि उसे ऐसा लगता है कि इस मुरली पर धुन बजाते समय कृष्ण इतने मग्न हो जाते हैं कि हम सबको भूल जाते हैं। साथ ही मुरली को हर समय कृष्ण के साथ रहने का सौभाग्य मिलता है इस कारण गोपियाँ मुरली से ईर्ष्या भी करती हैं।

(4)

काननि दै अँगुरी रहिबो जबहीं मुरली धुनि मंद बजैहै ।

मोहनी तानन सों रसखानि अटा चढ़ि गोधन गैहै तौ गैहै ॥ 

टेरि कहौं सिगरे ब्रजलोगनि काल्हि कोऊ कितनो समुझहै।

 माइ री वा मुख की मुसकानि सम्हारी न जैहै, न जैहै, न जैहै ॥

शब्दार्थ –

  • काननि – कानों में

  • दै – देकर।

  • अँगुरी – उँगली 

  • रहिबो-रहूँगी

  • धुनि – धुन

  • मंद – मधुर स्वर में

  • बजैहै – बजाएँगे

  • मोहनी – मोहनेवाली

  • तानन  सों – तानों / धुनों  से

  • अटा  – अट्टालिका, ऊँचे भवन

  • गोधन – गायों का समूह, गाय के रूप में होने वाली संपत्ति

  • गैहै – गाते हैं

  • टेरि – पुकारकर बुलाना 

  • सिगरे – सारे  

  • काल्हि – कल  

  • समुझैहै – समझाएँगे 

  • माइ री -हे माई / माँ

  • वा – उस

  • सम्हारी – सँभाली

  • न जैहै – नहीं जाएगी

प्रसंग –

प्रस्तुत सवैये में रसखान जी ने श्री कृष्ण की मुरली की धुन और उनकी मनमोहक मुस्कान के प्रभाव का वर्णन किया है। गोपियाँ इन दोनों से बचने का प्रयास करती हैं परंतु वह कृष्ण के मुख की मुस्कान के आगे विवश हो जाती हैं। 

व्याख्या –

एक गोपी कहती है कि जब श्री कृष्ण धीरे-धीरे मधुर स्वर में मुरली बजाएँगे तब मैं अपने कानों में उँगली डाल लूँगी जिससे मुझे मुरली का स्वर मोहित न कर सके और मैं उनके वश में कर लेने वाले प्रभाव से बच सकूँ। श्री कृष्णा ऊँचे – ऊँचे भवनों पर चढ़कर ब्रज की गायों को आनंद देने वाली तान (धुन) गाते हैं तो गाएँ। मैं उस पर ध्यान नहीं दूँगी।

गोपी सारे ब्रज के लोगों को पुकार कर कहती है कि कल को कोई मुझे कितना भी समझाए लेकिन हे माई! उस (कृष्ण के) मुख की मुस्कान इतनी मनमोहक है कि मुझसे वह सँभाली नहीं जाती अर्थात् कृष्ण की जादुई मुस्कान के आगे मैं अपने आपको रोक नहीं पाती और उनके वश में हो जाती हूँ।

 

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