Aatmatran

Aatmatran – NCERT Class 10 Hindi Course B Sparsh पाठ – आत्मत्राण

NCERT Study Material for Class 10 Hindi Sparsh Chapter - 9 Aatmatran
Composed by Rabindranath Tagore

हमारे ब्लॉग में आपको NCERT पाठ्यक्रम के अंतर्गत कक्षा 10 (Course B) की हिंदी पुस्तक ‘स्पर्श’ के पाठ पर आधारित प्रश्नों के सटीक उत्तर स्पष्ट एवं सरल भाषा में प्राप्त होंगे। साथ ही काव्य – खंड के अंतर्गत निहित कविताओं एवं साखियों आदि की विस्तृत व्याख्या भी दी गई है।

यहाँ NCERT HINDI Class 10 के पाठ – 9 कविता – ‘आत्मत्राण’ की व्याख्या दी जा रही है। यह व्याख्या पाठ की विषय-वस्तु को समझने में आपकी सहायता करेगी। इसे समझने के उपरांत आप पाठ से संबंधित किसी भी प्रश्न का उत्तर सरलता से दे सकेंगे। आशा है यह सामग्री आपके लिए उपयोगी सिद्ध होगी।

Table of Contents

Aatmatran - आत्मत्राण
सार / प्रतिपाद्य

प्रस्तुत कविता कविवर रवींद्रनाथ ठाकुर (रवींद्रनाथ टैगोर) द्वारा बांग्ला में लिखी गई है। इसका हिंदी में अनुवाद आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी जी ने किया है।

यह कविता वास्तव में एक प्रार्थना है। मनुष्य हमेशा प्रार्थना में ईश्वर से कुछ – न – कुछ माँगता है, जैसे – धन – दौलत, सफलता, सुख – सुविधाएँ आदि। लेकिन यह कविता अन्य प्रार्थनाओं से बिल्कुल अलग है। 

प्रस्तुत कविता में कवि गुरु मानते हैं कि प्रभु में सब कुछ संभव कर देने का सामर्थ्य है, फिर भी वह यह बिल्कुल नहीं चाहते कि वही सब कुछ कर दें। कवि कामना करता हैं कि किसी भी कठिनाई में, जीवन की मुश्किल परिस्थितियों से सफलतापूर्वक निकालने के लिए वह स्वयं संघर्ष करे। वह ईश्वर से बस यह प्रार्थना करता है कि वह हर विपत्ति का सामना निर्भयता से (बिना डर के) करे। ईश्वर उसे दुख को सहन करने की शक्ति दे। कोई सहायता न मिलने पर उसका पौरुष (आत्म बल) न हिले। संसार के लोगों से धोखा मिलने पर भी वह मन से हारना नहीं चाहता ।

कवि बस इतना चाहता हैं कि ईश्वर उसमें इतनी शक्ति भर दें कि वह बिना डरे अपने दुखों से उबर पाए। कवि सुख और दुख दोनों स्थितियों में ईश्वर पर अपना विश्वास बनाए रखना चाहता है। 

Aatmatran - आत्मत्राण
कविता का शीर्षक

आत्मत्राण’ का अर्थ है – स्वयं अपनी रक्षा करना। कवि प्रभु से किसी प्रकार की सहायता नहीं माँगता। वह प्रार्थना ईश्वर को हर कष्ट से बचने के लिए नहीं पुकारता। वह स्वयं, अपने दुखों से लड़ने और उनसे उबरने  के योग्य बनना चाहता है। इसके लिए वह केवल स्वयं को समर्थ बनाना चाहता है। यह शीर्षक कविता की मूल भावना को स्पष्ट करने में सहायक है इसलिए कविता का यह शीर्षक उचित है। 

Aatmatran - आत्मत्राण
शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या

विपदाओं से मुझे बचाओ. यह मेरी प्रार्थना नहीं 

केवल इतना हो (करुणामय)

कभी न विपदा में पाऊँ भय। 

विपदा – मुश्किलें, कठिनाई

करुणामय – दूसरों पर दया करने वाले (ईश्वर) 

व्याख्या – कवि दूसरों पर दया करने वाले ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि हे ईश्वर ! मैं यह विनती नहीं करता कि आप मुझे मुश्किलों से बचाएँ। हे ईश्वर! मैं बस इतना चाहता हूँ कि मैं संकटों का सामना करने से न डरूँ। 

कवि कहना चाहते हैं कि जीवन में कठिनाइयाँ तो अवश्य आएँगी। ऐसे समय में वह उनसे बचने की प्रार्थना करने के बदले ईश्वर से उन परेशानियों का निडरता से सामना करने का साहस पाने की प्रार्थना करते हैं। 

दुःख-ताप से व्यथित चित्त को न दो सांत्वना नहीं सही 

पर इतना होवे (करुणामय) 

दुख को मैं कर सकूँ सदा जय। 

दुख – ताप – कष्ट की पीड़ा 

व्यथित – दुखी

चित्त – मन

सांत्वना – तसल्ली 

व्याख्या – कवि ईश्वर से प्रार्थना करते हुए कहते हैं कि हे ईश्वर! जब मेरा मन दुख और दर्द से भरा हो तो उस समय आप मेरा दुख कम करने के लिए मुझे तसल्ली न भी दें तो कोई बात नहीं। मैं अपना दुख सह लूँगा। हे ईश्वर! बस मुझ पर इतनी कृपा करना कि मैं अपने दुख से हार न जाऊँ बल्कि हमेशा अपने दुखों पर जीत पा सकूँ। 

कवि का कहने का भाव यह है कि उन्हें अपने दुख और अपनी पीड़ा को ईश्वर से बाँटने की चाह नहीं है। वह आत्म बल से (अपनी हिम्मत से) उन दुखों का सामना करते हुए उन पर विजय पाना चाहते हैं। 

कोई कहीं सहायक न मिले 

तो अपना बल पौरुष न हिले,

हानि उठानी पड़े जगत् में लाभ अगर वंचना रही

तो भी मन में ना मानूँ क्षय ।। 

पौरुष – पराक्रम, वीरता

वंचना – धोखा

क्षय – नाश होना, हारना

व्याख्या –  कवि प्रार्थना करते हुए कहते हैं कि हे ईश्वर! यदि संकट के समय मेरी सहायता करने वाला कोई न हो तो ऐसे समय में भी मेरी शक्ति, मेरी साहस कम न हो। यदि इस संसार में लोग मुझे धोखा दें और इस कारण मुझे हानि उठानी पड़े तो भी मैं कमज़ोर न पडूँ। मैं जीवन में हार मानकर ना बैठ जाऊँ। 

कवि कहना चाहते हैं कि मुसीबत के समय सहायक न मिलने पर भी उनकी शक्ति किसी प्रकार भी कम न हो। संसार से धोखा मिलने पर भी वह मन से हारना नहीं चाहते। वे सभी प्रकार के दुखों और परेशानियों का सामना करते हुए भी हिम्मत के साथ आगे बढ़ना चाहते हैं। 

मेरा त्राण करो अनुदिन तुम यह मेरी प्रार्थना नहीं

बस इतना होवे (करुणायम) 

तरने की हो शक्ति अनामय

त्राण – रक्षा 

अनुदिन – प्रतिदिन, हर रोज़

अनामय – रोग रहित, स्वस्थ 

व्याख्या – कवि कहते हैं कि हे ईश्वर ! मैं यह प्रार्थना नहीं कर रहा कि आप हर रोज़ मेरी रक्षा करें, मुझे हर संकट से बचते रहें। मेरी आपसे बस यही प्रार्थना है कि मुझ में हर संकट से उबरने की शक्ति भर दें। मुझे रोग मुक्त रखें जिससे मुझ में हर संकट को सहने और उससे बाहर निकालने की शक्ति आ सके। 

भाव यह है कि कवि ईश्वर से यह नहीं चाहते कि वे हर समय कवि की रक्षा करें। कवि बस इतना चाहते हैं कि ईश्वर उनमें इतनी शक्ति भर दें जिससे वह अपने कष्टों को दूर करने में सामर्थ हो पाएँ। 

मेरा भार अगर लघु करके न दो सांत्वना नहीं सही।

केवल इतना रखना अनुनय- 

वहन कर सकूँ इसको निर्भय। 

लघु – छोटा, कम

सांत्वना – तसल्ली 

अनुनय – विनयपूर्वक प्रार्थना 

निर्भय – बिना डर के

व्याख्या – कवि ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि मेरा भार अर्थात् दुख और परेशानियों को कम करके आप मुझे तसल्ली न दें तो कोई बात नहीं। मेरी आपसे विनय पूर्वक बस यही प्रार्थना है कि मैं अपने दुखों का भार स्वयं निडरता पूर्वक उठा सकूँ अर्थात मैं अपने जीवन की परेशानियों से बिना डरे उनका सामना कर सकूँ। 

 नत शिर होकर सुख के दिन में 

तब मुख पहचान छिन – छिन में।

नत शिर – सिर झुकाकर 

छिन-छिन – हर पल

व्याख्या – कभी ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि मैं सुख के पलों में भी आपके सामने अपना सिर झुकाना चाहता हूँ और हर पल आपको अपने समीप महसूस करना चाहता हूँ। 

कहने का भाव यह है कि कवि अपने जीवन में सुख को ईश्वर की कृपा समझते हैं और यह प्रार्थना करते हैं कि सुख के पलों में वह ईश्वर को न भूलें। 

दुःख-रात्रि में करे वंचना मेरी जिस दिन निखिल मही 

उस दिन ऐसा हो करुणामय, 

तुम पर करूँ नहीं कुछ संशय।।

वंचना – धोखा

निखिल – संपूर्ण, सारी

मही – धरती

संशय – संदेह

व्याख्या – 

कवि कहते हैं कि जब मेरे जीवन में दुख रूपी रात हो अर्थात् जब मैं चारों तरफ दुखों और मुश्किलों से घिर जाऊँ, सारी दुनिया मुझे धोखा दे और मेरा साथ छोड़ दे, हे ईश्वर! उस पल में भी मुझमें ऐसी शक्ति भर देना कि मैं आप पर कोई संदेह न करूँ। मैं यह न सोचूँ कि यह दुख मुझे अपने दिया है। आपके प्रति मेरी भक्ति कम न हो। 

कवि दुख के कठिन पलों में भी ईश्वर के प्रति विश्वास बनाए रखना चाहते हैं। वह नहीं चाहते कि उनके मन में यह संदेह कभी उत्पन्न हो कि उन्हें ईश्वर की इच्छा से ही दुख मिले हैं। सुख और दुख तो जीवन में आते – जाते रहते हैं। कवि दोनों परिस्थितियों में ईश्वर पर अपना विश्वास बनाए रखना चाहते हैं। इस कविता में कवि ईश्वर से अपनी रक्षा की प्रार्थना न करते हुए अपनी रक्षा स्वयं करने की शक्ति प्रदान करने की प्रार्थना करते हैं। 

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8 Comments

  1. Sonali Thakkar

    Thank you so much! I had been waiting for this lesson for a long time.

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