‘पेड़ – पौधे मनुष्य – जीवन के लिए अति आवश्यक हैं।’ इस सर्व विदित सत्य को आप प्रस्तुत व्यंग्य-प्रधान एकांकी के माध्यम से और अच्छी तरह समझ पाएँगे।
अन्य एकांकी के समान इस एकांकी को भी मैंने अपने अध्यापन काल में एक ‘अंतर विद्यालय प्रतियोगिता’ के लिए नाट्य – मंचन के उद्देश्य से लिखा था और इस एकांकी में भाग लेने वाले विद्यार्थियों को पुरस्कृत भी किया गया था।निःसंदेह मेरे लिए यह प्रसन्नता का विषय है।
इस एकांकी में मैंने वृक्षों की उपयोगिता और उनके निरंतर काटे जाने के दुष्परिणामों को मनोरंजक रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है। आशा है इस एकांकी के माध्यम से बच्चों और बड़ों, सभी तक वृक्ष का संदेश पहुँचेगा। उनके प्रति हमारी संवेदनशीलता बढ़ेगी।
आप सभी से अनुरोध है कि इस एकांकी को पढ़कर अपनी प्रतिक्रिया रूप में अपने विचार नीचे दिए गए कमेंट बॉक्स में अवश्य साझा करें। आपके विचार मेरे लेखन के परिष्कार में सहायक होंगे।
एकांकी – गुणवान पेड़ का ज्ञान
पात्र –
पेड़ – चेहरे पर मुस्कान लिए, हरी – हरी पत्तियों से भरी अपनी शाखाएँ फैलाए हुए।
आदमी – साधारण वेशभूषा में सिर पर साफ़ा बाँधे और हाथ में कुल्हाड़ी लिए हुए।
(एक खुले मैदान में लहलहाता हरा – भरा पेड़। वातावरण को और खुशनुमा बनाती हुई पक्षियों की चहचहाहट।)
पेड़ – (मज़े – से झूमते हुए) ठंडी हवा, ये चाँदनी सुहानी! ए मेरे दिल! सुना कोई कहानी… ला ला ला ला… लाला ला ला लाला ला… हूँ हूँ हूँ हूँ…हा हा हा हा हहा… हहा हहा हा हा हा… कहो गिलहरी बिटिया कैसी हो? अरे! आज यह चकलू बंदर कहाँ चला गया?… हूँ… नुक्कड़ वाले पेड़ पर मीठे-मीठे आमों को देखकर उसकी लार टपक रही होगी, गया होगा वहीं,पेट – पूजा करने। वाह! क्या मस्त हवा चल रही है, बड़े दिनों बाद… नहीं तो इन मोटर गाड़ियों और फैक्ट्रियों के धुएँ ने तो जैसे मुझे दमे का मरीज़ ही बना छोड़ा है! मेरा निखार भी कुछ कम होता जा रहा है… और मेरे फेफड़े, उनकी तो टाँय – टाँय फिस ही कर डाली है मनुष्य की महत्त्वाकांक्षाओं ने… (अपनी शाखाओं को मस्ती में हिलाते हुए) आ हा हा हा हूँ हूँ हूँ हूँ ला ला ला… ऐसे मौसम में तो बच्चों को और भी मज़ा आता है, मेरी बाहों पर रस्सी डालकर झूला झूलने में!
(अचानक आश्चर्य से सामने की ओर देखते हुए) अरे यह कौन आ रहा है इस तरफ? आएँ! यह क्या? इसके हाथ में तो कुल्हाड़ी है! हाय राम! मर गए!… क्या यह मुझे काटने आ रहा है? बचाओ! बचाओ!… अरे, कोई तो मेरी मदद करो! गिलहरी बिटिया! चकलू बंदर को बुलाओ! तुम्हें मेरे मीठे – मीठे फलों का वास्ता। हाय! हाय राम! अरे ओ पंछियों! जरा अपने घोंसलों से बाहर तो निकलो! यह राक्षस तुम्हारा घर उजाड़ने आ रहा है!! इसे रोको!!
आदमी – यह ठीक है। काफ़ी मोटा – ताज़ा और मज़बूत पेड़ है।(मुस्कुराते हुए) इसकी लकड़ी से तो मेरी अच्छी कमाई हो जाएगी।
पेड़ – अरे भाई ठहरो! ठहरो! मैंने क्या अपनी यह बॉडी, यूँ ही कटने – मरने के लिए बनाई है? मैं कोई बेकार सूखा पेड़ नहीं, अच्छा खासा हट्टा- कट्टा हूँ, ज़िंदा रहकर तुम्हें ही लाभ पहुँचा रहा हूँ।
आदमी – वह कैसे?
पेड़ – अरे! अजीब बात करते हो? क्या तुम साँस लेते हो? आदमी- क्या?
पेड़ – हाँ, हाँ, मैंने पूछा, क्या तुम साँस लेते हो?
आदमी – यह कैसा सवाल है? साँस नहीं लूंगा तो मर नहीं जाऊँगा!
पेड़ – तो मेरे भाई जब मैं तुम्हें ज़िंदा रखने में तुम्हारी मदद करता हूँ, तुम्हें प्राणवायु प्रदान करता हूँ, तो तुम क्यों मेरी जान के दुश्मन बने हुए हो? एक तो वैसे ही तुम्हारे दुष्कर्मों के कारण वातावरण दूषित होने से, मेरी तबीयत थोड़ी – सी नासाज़ रहती है। अब तुम आ धमके मेरा काम तमाम करने।
आदमी – अरे भाई! आज के टैम में तो अपना पेट भरने के लिए आदमी, आदमी को ही खा रहा है! तुम तो फिर भी एक पेड़ हो… तुम्हारी किसे पड़ी है?
पेड़ – पर यह समझ लो, अगर मुझे और मेरे भाइयों को तुम यूँ ही काटते रहे तो तुम भी ज़्यादा समय तक ज़िंदा नहीं रह पाओगे!
आदमी- मतलब?
पेड़ – मतलब यह है कि अगर तुम इसी तरह पेड़ों को काटते रहे तो तुम्हें साँस लेने के लिए स्वच्छ वायु नहीं मिलेगी, बारिश नहीं होगी तो सूखा पड़ेगा, फल- सब्जियाँ आदि खाद्य पदार्थ नहीं मिलेंगे तो भाई तुम खाओगे क्या? हम ही धरती की उर्वरा शक्ति को बढ़ाते हैं। हमारी जड़े मिट्टी को बाँधे रखती हैं जिससे बाढ़ का खतरा टलता है।
आदमी – बाप रे बाप!… पेड़ भाई, मैं तो तुम्हारे उपकारों से अनजान था और अपनी नादानी के कारण तुम्हें ही नष्ट किया जा रहा था! मुझे माफ़ करना!… आज संसार जिस विकट स्थिति से जूझ रहा है उसके ज़िम्मेदार तो हम स्वयं ही हैं।(कुछ सोचते हुए) क्या इस गलती को सुधारने का कोई उपाय नहीं?
पेड़ – (खिलखिलाते हुए) हूँ… यह हुई ना बात! समस्या के समय घर के बड़े बुज़ुर्गों से सलाह ले लेनी चाहिए। अगर इस दुनिया का हर आदमी एक पौधा लगाए, उसे प्यार और पानी से सींचे तो हो सकता है, भविष्य में स्थिति इससे बेहतर हों! कहो क्या समझे।
आदमी – समझ गया पेड़ भाई! सब समझ गया!
प्रिय पाठकों,
आपको यह एकांकी कैसी लगी ? कृपया अपने विचार और सुझाव मुझे कॉमेंट करके अवश्य बताएँ।
धन्यवाद
सोनिया बुद्धिराजा
Outstanding piece of work! 👌👏