कैसे हुआ हिंदी का जन्म ? – हिंदी भाषा के उद्भव और विकास की कहानी (भाग-2)


हिंदी भाषा के उद्भव और विकास की कहानी 

हिंदी भाषा के उद्भव और विकास की कहानी के पिछले भाग (भाग-1) में हमने जाना कि हिंदी भाषा का जन्म मूल रूप से संस्कृत भाषा से हुआ। समय के साथ उसके स्वरूप में परिवर्तन आता गया और वह पालि, प्राकृत और अपभ्रंश की अपनी विकास यात्रा को पार करते हुए लगभग 1000 ईसवी में अस्तित्व में आई।


यह भी पढ़ें :-

कैसे हुआ हिंदी का जन्म?- हिंदी भाषा के उद्भव और  विकास की कहानी (भाग – 1)


      अपभ्रंश के भी अनेक क्षेत्रीय रूपों (अलग-अलग जगह बोले जाने वाले अलग-अलग रूप) के आधार पर हिंदी के वर्तमान रूपों का उद्भव शौरसेनी, अर्ध मागधी तथा मागधी अपभ्रंश से हुआ है।



     हिंदी भाषा मुख्य रूप से हिमाचल प्रदेश, पंजाब के कुछ भागों , हरियाणा, राजस्थान, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश तथा बिहार में बोली जाती है। इस आधार पर हिंदी की पाँच उपभाषाएँ हैं। इन पाँच उपभाषाओं के अंतर्गत सत्रह बोलियाँ हैं – 



कैसे हुआ हिंदी का जन्म ? - हिंदी भाषा के उद्भव और  विकास की कहानी (भाग-2)



यहाँ हम उपरोक्त सभी बोलियों का क्रमानुसार संक्षिप्त परिचय देते हुए हिंदी साहित्य में उनके योगदान के विषय में बताएँगे। यह ज्ञानवर्धक सामग्री डॉ. नगेंद्र द्वारा संपादित ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ के लेख ‘हिंदी भाषा : उद्भव, विकास और स्वरूप’ से ग्रहण की गई है। इस लेख के लेखक हिंदी भाषा के विद्वान डॉ. भोलानाथ तिवारी जी हैं। अतः हम किसी भी प्रकार की भ्रामक जानकारी की चिंता से पूर्णतः मुक्त हैं। 


पश्चिमी हिंदी 


खड़ीबोली – 

‘खड़ीबोली’ शब्द का प्रयोग दो अर्थों में होता है – एक तो साहित्यिक हिंदी खड़ीबोली के अर्थ में और दूसरे दिल्ली-मेरठ के आसपास की लोक बोली के अर्थ में। दूसरे अर्थ में इसे ‘कौरवी’, ‘देहलवी’ नामों से भी जाना जाता है। 

~ ‘खड़ीबोली’ में ‘खड़ी’ शब्द का अर्थ विवादास्पद है। कुछ विद्वानों ने ‘खड़ी’ का अर्थ ‘खरी’ (pure) अर्थात् शुद्ध माना है, तो कुछ ने ‘खड़ी’ (standing)। कुछ अन्य लोगों ने इसका संबंध खड़ीबोली में अधिकता से प्रयुक्त खड़ी पाई ‘। ‘ (गया, बड़ा, का) तथा उसके ध्वन्यात्मक कर्कश प्रभाव से जोड़ा है। यों अभी तक यह प्रश्न अनिश्चित है। 

~ खड़ीबोली या कौरवी का उद्भव शौरसेनी अपभ्रंश के उत्तरी रूप से हुआ है। 

~ इसका क्षेत्र देहरादून का मैदानी भाग, सहारनपुर, मुजफ्फरनगर, मेरठ, दिल्ली का कुछ भाग, बिजनौर, रामपुर तथा मुरादाबाद है। 

~ लोक-साहित्य की दृष्टि से खड़ीबोली बहुत संपन्न है और इसमें पवाडा, नाटक, लोककथा, लोकगीत आदि पर्याप्त मात्रा में मिलते हैं। 

~ हिंदी, उर्दू, हिंदुस्तानी तथा दक्खिनी एक सीमा तक खड़ीबोली पर आधारित हैं। 



ब्रजभाषा –

ब्रज का पुराना अर्थ ‘पशुओं या गौओं का समूह’ या ‘चरागाह’ आदि है। पशुपालन के प्राधान्य के कारण यह क्षेत्र ब्रज कहलाया, और इसी आधार पर इसकी बोली ब्रजभाषा कहलाई। 

~ इसका विकास शौरसेनी अपभ्रंश के मध्यवर्ती रूप से हुआ है। 

~ ब्रजभाषा आगरा, मथुरा, अलीगढ़, घौलपुर, मैनपुरी, एटा, बदायूँ, बरेली तथा आसपास के क्षेत्रों में बोली जाती है। 

~ साहित्य और लोक-साहित्य दोनों ही दृष्टियों से ब्रजभाषा बहुत संपन्न है। हिंदी प्रदेश के बाहर भी भारत के अनेक क्षेत्रों में ब्रजभाषा में साहित्य-रचना होती रही है। 

~ सूरदास, तुलसीदास, नंददास, रहीम, रसखान, बिहारी, देव, रत्नाकर आदि इसके प्रमुख कवि हैं।


हरियाणवी – 

‘हरियाणा ‘ शब्द की व्युत्पत्ति विवादास्पद है। हरि + यान (कृष्ण का यान इधर से ही द्वारका गया था), हरि + अरण्य (हरावन) तथा अहीर + आना (राजपूताना, तिलंगाना की तरह) आदि कई मत दिए गए हैं, किंतु कोई भी सर्वमान्य नहीं है। 

~ हरियाणवी का विकास उत्तरी शौरसेनी अपभ्रंश के पश्चिमी रूप से हुआ है। खड़ीबोली, अहीरवाटी, मारवाड़ी, पंजाबी से घिरी इस बोली को कुछ लोग खड़ीबोली का पंजाबी से प्रभावित रूप मानते हैं। 

~ इसका क्षेत्र मोटे रूप से हरियाणा तथा दिल्ली का देहाती भाग है। 

~ हरियाणी में केवल लोक-साहित्य है, जिसका कुछ अंश मुद्रित भी है।



बुंदेली – 

बुंदेले राजपूतों के कारण मध्यप्रदेश तथा उत्तरप्रदेश की सीमारेखा के झाँसी, छत्तरपुर, सागर आदि तथा आसपास के भाग को बुंदेलखंड कहते हैं। वहीं की बोली बुंदेली या बुंदेलखंडी कही जाती है। 

~ बुंदेली का विकास शौरसेनी अपभ्रंश से हुआ है। 

~ इसका क्षेत्र झाँसी, जालौन, हमीरपुर, ग्वालियर, ओरछा, सागर, नृसिंहपुर, सिवनी, होशंगाबाद तथा आसपास का क्षेत्र है। 

~ बुंदेली में काफ़ी लोक-साहित्य मिलता है। जिसमें ईसुरी के फाग बड़े प्रसिद्ध हैं। कहा जाता है कि हिंदी प्रदेश की प्रसिद्ध लोकगाथा ‘आल्हा’, जिसे हिंदी साहित्य में भी स्थान मिला है, मूलतः बुंदेली की एक उपबोली बनाफरी में लिखा गया था।


कन्नौजी – 

कन्नौज (संस्कृत कान्यकुब्ज) इस बोली का केन्द्र है, अतः इस कारण इसका नाम कन्नौजी पड़ा है।

~ कन्नौजी भी शौरसेनी अपभ्रंश से ही निकली है।

~ यह ब्रजभाषा से इतनी अधिक समान है कि कुछ लोग इसे ब्रजभाषा की ही एक उपबोली मानते हैं।

~ यह इटावा फर्रुखाबाद, शाहजहाँपुर, कानपुर, हरदोई, पीलीभीत आदि में बोली जाती है। 

~ कन्नौजी में केवल लोक-साहित्य मिलता है जिसमें से कुछ अंश प्रकाशित भी हो चुका है।


पूर्वी हिंदी


अवधी – 

इस बोली का केंद्र अयोध्या है। ‘अयोध्या’ का ही विकसित रूप ‘अवध’ है जिससे ‘अवधी’ शब्द बना है। 

~ इसके उद्भव के संबंध में विवाद है। अधिकांश विद्वान् इसका संबंध अर्धमागधी अपभ्रंश से मानते हैं, किंतु कुछ लोग पालि की समानता के आधार पर इस मत को नहीं मानते। 

~ अवधी का क्षेत्र लखनऊ, इलाहाबाद, फतेहपुर, मिर्जापुर (अंशतः), उन्नाव, रायबरेली, सीतापुर, फैजाबाद, गोंडा, बस्ती, बहराइच, सुल्तानपुर, प्रतापगढ़, बाराबंकी आदि है। 

~ अवधी में साहित्य तथा लोक-साहित्य दोनों ही पर्याप्त मात्रा में हैं। इसके प्रसिद्ध कवि मुल्ला दाऊद, कुतुबन, जायसी, तुलसीदास, उसमान,सबलसिंह आदि हैं।


बघेली – 

बघेले राजपूतों के आधार पर रीवां तथा आसपास का इलाका बघेलखंड कहलाता है और वहाँ की बोली को बघेलखंडी या बघेली कहते हैं। 

~ बघेली का उद्भव अर्धमागधी अपभ्रंश के ही एक क्षेत्रीय रूप से हुआ है। यद्यपि लोग इसे अलग बोली मानते हैं किंतु भाषावैज्ञानिक स्तर पर यह अवधी की ही एक उपबोली ज्ञात होती है और इसे दक्षिणी अवधी कह सकते हैं। 

~ इसका क्षेत्र रीवां, नागौद, शहडोल, सतना, महर तथा आसपास का क्षेत्र है। 

~ कुछ अपवादों को छोड़कर बघेली में केवल लोक-साहित्य ही मिला है।


छत्तीसगढ़ी – 

मुख्य क्षेत्र छत्तीसगढ़ होने के कारण इसका नाम छत्तीसगढ़ी पड़ा है। 

~ अर्धमागधी अपभ्रंश के दक्षिणी रूप से इसका विकास हुआ है। 

~ इसका क्षेत्र सरगुजा, कौरिक बिलासपुर, रायगढ़, खैरागढ़, रायपुर, दुर्ग, नंदगाँव, काकेर आदि हैं। 

~ छत्तीसगढ़ी में भी केवल लोक साहित्य है।


राजस्थानी


पश्चिमी राजस्थानी – 

इसे मारवाड़ी भी कहते हैं। 

~ शौरसेनी अपभ्रंश से इसका विकास हुआ है।

~ राजस्थानी का यह रूप पश्चिमी राजस्थान अर्थात् जोधपुर, अजमेर, किशनगढ़, मेवाड़, सिरोही, जैसलमेर, बीकानेर आदि में बोला जाता है। 

~ मारवाड़ी में साहित्य तथा लोक-साहित्य दोनों ही पर्याप्त मात्रा में हैं। मीरा के पद इसी भाषा में हैं।


उत्तरी राजस्थानी – 

मेओ जाति के इलाके मेवात के नाम पर इसे ‘मेवाती’ भी कहते हैं। इसकी एक मिश्रित बोली अहीरवाटी है जो गुड़गाँव, दिल्ली तथा करनाल के पश्चिमी क्षेत्रों में बोली जाती है। इस पर हरियाणवी का बहुत प्रभाव है।

~ उत्तरी राजस्थानी का उद्भव शौरसेनी अपभ्रंश से हुआ है।

~ उत्तरी राजस्थान में इसका क्षेत्र अलवर, गुड़गाँव, भरतपुर तथा आसपास की जगह हैं। 

~ मेवाती में केवल लोक-साहित्य है। 


पूर्वी राजस्थानी – 

इसकी प्रतिनिधि बोली जयपुरी है, जिसका केंद्र जयपुर है। जयपुरी को ढूंढाणी भी कहते हैं क्योंकि इस क्षेत्र का नाम ढूंढाण है। 

~ यह शौरसेनी अपभ्रंश से विकसित बोली है। 

~ यह राजस्थान के पूर्वी भाग में जयपुर, अजमेर, किशनगढ़ आदि में बोली जाती है। 

~ इसमें केवल लोक साहित्य है।


दक्षिणी राजस्थानी –

इसकी प्रतिनिधि बोली मालवी है, जिसका मुख्य क्षेत्र मालवा है। 

~ यह शौरसेनी अपभ्रंश से विकसित बोली है। 

~ इन्दौर, उज्जैन, देवास, रतलाम, भोपाल, होशंगाबाद तथा इनके आसपास इसका क्षेत्र है। 

~ इस बोली में कुछ साहित्य तथा पर्याप्त लोक साहित्य है।


पहाड़ी 


पश्चिमी पहाड़ी – 

यह शौरसेनी अपभ्रंश से विकसित बोली है। 

~ जौनसार, सिरमौर, शिमला, मंडी, चंबा तथा इनके आसपास के क्षेत्रों में यह बोली जाती है। 

~ इसमें केवल लोक साहित्य मिलता है। 


मध्यवर्ती पहाड़ी –

यह गढ़वाली और कुमाऊँनी, इन दोनों बोलियों का सामूहिक नाम है। 

~ यह शौरसेनी अपभ्रंश से विकसित बोली है।

~ इसका क्षेत्र गढ़वाल, कुमाऊँ तथा इनके आसपास के क्षेत्रों में यह बोली जाती है। 

~ इन बोलियों में लोक साहित्य तो पर्याप्त मात्रा में है, साथ ही कुछ साहित्य भी है। 


बिहारी 



भोजपुरी – 

बिहार के शाहाबाद जिले के भोजपुर गाँव के नाम के आधार पर इस बोली का नाम ‘भोजपुरी’ पड़ा है। 

~ यह मागधी अपभ्रंश के पश्चिमी रूप से विकसित बोली है। 

~ इस बोली का क्षेत्र बनारस, जौनपुर, मिर्ज़ापुर, गाज़ीपुर, बलिया, गोरखपुर, देवरिया, आजमगढ़, बस्ती, शाहाबाद, चंपारन, सारन तथा आसपास का कुछ क्षेत्र है। 

~ हिंदी-प्रदेश की बोलियों में भोजपुरी बोलनेवाले सबसे अधिक हैं। 

~ भोजपुरी में मुख्यतः लोक-साहित्य ही मिलता है, शिष्ट साहित्य बहुत कम है। हिंदी खड़ीबोली के जनक भारतेंदु हरिश्चंद्र, उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद , छायावादी कवि जयशंकर प्रसाद जैसे महान रचनाकार इसी क्षेत्र के हैं। किंतु साहित्य में इन्होंने इस बोली का प्रयोग नहीं किया।


मगही –

संस्कृत ‘मगध’ से विकसित शब्द ‘मगह’ पर इसका नाम आधारित है। 

~ यह बोली मागधी अपभ्रंश का विकसित रूप है। 

~ यह पटना, गया, पलामू, हज़ारीबाग, मुँगेर, भागलपुर तथा इनके आसपास बोली जाती है। 

~ इसमें लोक-साहित्य काफ़ी मात्रा में है। कुछ ललित साहित्य भी है। 


मैथिली –

यह बोली हिंदी और बाँग्ला क्षेत्र की

संधि पर मिथिला में बोली जाती है। 

~ यह मागधी अपभ्रंश के मध्यवर्ती रूप से विकसित बोली है। 

~ यह दरभंगा, मुजफ़्फ़रपुर, पूर्णिया तथा मुँगेर आदि में बोली जाती है । 

~ लोक-साहित्य की दृष्टि से मैथिली बहुत संपन्न है, साथ ही इसमें साहित्य-रचना अत्यन्त प्राचीन काल से होती चली आ रही है। हिन्दी-साहित्य को विद्यापति जैसे रससिद्ध कवि देने का श्रेय मैथिली को ही है। इनके अतिरिक्त गोविंददास, रणजीतलाल, हरिमोहन झा आदि भी इनके अच्छे साहित्यकार हैं।



       इस पोस्ट का उद्देश्य हिंदी भाषियों और हिंदी प्रेमियों को हिंदी भाषा से संबंधित मूल जानकारी प्रदान करना है। उपरोक्त साम्रगी के स्रोत के विषय में पहले ही उल्लेख किया गया है। आशा है, उपलब्ध जानकारी आपको पसंद आई होगी। अपने विचार एवं सुझाव हमें कॉमेंट करके अवश्य साझा करें। 


धन्यवाद 


स्रोत – 

लेख – हिंदी भाषा : उद्भव, विकास और स्वरूप

लेखक – डॉ. भोलानाथ तिवारी 

पुस्तक – हिंदी साहित्य का इतिहास 

संपादक – डॉ. नगेंद्र 


Comments

No comments yet. Why don’t you start the discussion?

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *